गिरीश रंजन तिवारी
पत्रकारिता में किस विषय पर लिखना सबसे कठिन होता है, यह मुझे पत्रकारिता में 28 वर्ष गुजारने के बाद बीते वर्ष तब समझ में आया, जब अपने प्रिय और प्रेरक पत्रकार अमर उजाला के पूर्व संपादक सुनील शाह पर अपने संस्मरण लिखने का दुर्योग सामने आया। तब कल्पना भी नहीं की थी कि उनकी बरसी से पहले अपने एक और अभिन्न मित्र और बचपन के साथी पत्रकार के साथ भी वैसी ही घटना घटित हो जाएगी और इतनी जल्दी ऐसा दूसरा आघात झेलना पड़ेगा। 4 फरवरी को सुबह-सुबह जब ‘चिया’ संस्था से फोन आया तो देखा कि उससे पहले डा. पुश्किन फत्र्याल, जिन्हें आगे मैं पुश्किन ही कहूंगा, और मेरे काॅमन फ्रेंड यूसुफ की मिस काॅल भी थी। फोन उठाते-उठाते दिल में दबा संशय दिमाग में पहुंच गया, सुबह सुबह कहीं पुश्किन तो नहीं चला गया? अभी परसों तो उसके पिता जी से फोन पर बात हुई थी। उन्होंने तो कहा था कि हम दिल्ली से लखनऊ आ गये हैं, पुश्किन की हालत सुधर रही है। फोन उठाते ही यह मनहूस आशंका सच निकली, जब भंडारी जी ने उसकी मृत्यु की सूचना दी। उसके बाद जागरण के किशोर जोशी, यूसूफ सहित तमाम लोगों के फोन आने लगे और बातों के साथ ही पुश्किन से बीते 26 साल के संबंधों के दौर की यादें नजरों के सामने वीडियो फिल्म की तरह चलने लगीं।
1990 में जब पुश्किन से पहली मुलाकात हुई वह 22 वर्ष का युवक था। ऊर्जा और नए नए आइडियाओं से भरपूर व्यक्तित्व। किसी भी विषय पर बात करो तो उसका एक नया ही नजरिया होता था। उसके गैर भारतीय रशियन नाम को लेकर भी जिज्ञासा थी। बहुत जल्द उसके साथ मित्रता घनिष्ठता में बदल गई। उसी वर्ष पहली बार उसके घर जाने पर अपनी माता जी श्रीमती कमला फत्र्याल से मिलवाते हुए उसने कहा था कि ये ’रंजन दा हैं और मेरे फुल्ल बडे भाई है।’ फुल पर जोर देकर उसने कहा था। न जाने क्यों वह दृश्य और शब्द आज भी स्मृति में उतना ही ताजा है जैसे कल की घटना हो। शायद यह घटना आज संस्मरण लिखने के काम आनी थी।
बहुत जल्द मुझे समझ आया कि पुश्किन की एक खासियत है कि जिस क्षेत्र में भी जाना है शिखर तक पहुँचना है, ये उसका जुनून था। बचपन से ही एनसीसी में रहते हुए उसे उत्तर प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ कैडेट का राज्यपाल पदक मिला था। शिक्षा में उसके इतिहास और समाजशास्त्र में एम.ए. पत्रकारिता और पर्यटन में पी.जी डिप्लोमा और फिर पी.एच.डी. की। इसी दौरान उसे छात्र राजनीति का शौक लगा तो चुनाव लड़ कर कुमाऊँ विश्वविद्यालय के डी.एस.बी. परिसर नैनीताल का छात्रसंघ अध्यक्ष बनकर ही माना, हालांकि उसे कई बार चुनाव लड़ने के बाद ही सफलता मिली। लेकिन उसने जिद नहीं छोड़ी। हम मजाक में कहते भी थे कि लगता है दूसरी डिग्रियों की तरह छात्रसंघ अध्यक्ष पद भी चार साल के परिश्रम के बाद ही मिलेगा तुम्हें। उस दौर में उसकी अनेक रातें हमारे मकान में गुजरती थीं और देर रात तक गप्पों का सिलसिला चलता। पढ़ाई के दौरान ही उसे पत्रकारिता का चस्का भी लग गया। लेकिन खास बात यह है कि दिन-रात हमारे साथ रहने के बावजूद पत्रकारिता में उसका शौक मुझे नहीं, बल्कि अमर उजाला के लिए कार्य करने वाले सुमन कुमार (नागपाल) को देखकर पैदा हुआ जो उसने कई बार मुझे बताया भी। शिखर तक पहुँचने का उसका जुनून पत्रकारिता और बाद में कैरियर में भी जारी रहा। दैनिक जागरण और पीटीआई के लिए उसने लंबे समय तक कार्य किया। पीटीआई से वह मृत्युपर्यंत जुड़ा रहा। इस दौरान पर्यटन संबंधी उच्च कोटि के लेखों तथा पर्यटन पर लिखी पुस्तकों के लिये उसे 1998, 2000 और 2001 में नेशनल अवार्ड फाॅर एक्सीलेंस मिला। 2006 में उत्तराखंड में कम खर्चे पर सामग्री ढोने के लिये रोपवे बनाने संबंधी तकनीक पर लिखे लेख पर भी अंतराष्ट्रीय गियान पुरस्कार उसे दिया गया।
1990 में जब छात्र आंदोलन अपने चरम पर था, उसने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया और लगभग बीस दिन फतेहगढ़ जेल में भी बिताए। मुझे याद है वहाँ से उसने पुलिस ज्यादतियों सहित आंदोलन के हालात मुझे चिट्ठी लिखकर भेजे थे, जिस पर मैने समाचार भी बनाए। विवाह के बाद जब उसकी पुत्री का जन्म हुआ तब भी उसका पत्र मेरे पास आया था उसने लिखा था कि हमें भी एक ‘खुशबू’ मिली है। खुशबू मेरी पुत्री का नाम है जिससे वह बहुत हिला मिला था और अपनी पुत्री का नाम खुशबू की तर्ज पर ही उसने ‘महिका’ रखा। रोजगार के सिलसिले में उसने ट्रैवल एजेंसी चलाने, पर्यटक बस संचालित करने, एटीआई में लैक्चर देने जैसे कई काम लिये लेकिन उसके भीतर समाज के लिये कुछ अलग और विकासपरक कार्य करने की जो लगन थी उसने उसे कहीं टिकने नहीं दिया और अंततः एक सही ठौर उसे 2003 में चिया (सेंट्रल हिमालयन एनवायरनमेंट एसोसिएशन) से जुड़ने पर मिली। जल्द ही यहाँ भी वह शिखर तक अधिशासी निदेशक पद तक जा पहुँचा। इसमें उसने इतना बेहतरीन काम किया कि चिया और पुश्किन एक दूसरे के पर्याय बन गए। मात्र 13 वर्ष की अवधि में उसने उत्तराखंड के पर्यावरण, सस्टेनेबल ग्रोथ, ग्रामीण विकास परियोजनाओं, वन पंचायतों के सुदृढीकरण, एनजीओ के लिए कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम, लाइवलीहुड बेस्ड मैनेजमेंट आफ रूरल रिसोर्सेज, टेªनिंग आफ टेªनर्स इन पार्टिसिपेटरी एप्रोचेज, टेªनिंग प्रोग्राम आॅन नेचुरल रिसोर्सेेज, जेंडर एंड क्लाइमेट चेंज जैसे जटिल और हमारी समझ में भी ठीक से न आ सकने जैसे विषयों पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और अंतर्राष्ट्रीय स्तर का काम किया। लेकिन उसके मुस्कराते चेहरे और मिलने पर बिल्कुल साघारण घरेलू बातें करने के अंदाज से कभी लगता ही नहीं था कि वह कितने बडे़ स्तर का काम कर रहा है। सच कहें तो वह हमारे लिये ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ की कहावत चरितार्थ करता था। हम उसके जीते जी उसके विस्तृत पटल को गंभीरता से समझ ही नहीं सके। इन कार्यों के सिलसिले में उसने जर्मनी, फ्रांस, चीन, इंग्लैंड, नेपाल, नीदरलैंड की दर्जनों यात्राएं कीं। इसके चलते वह अपने परिवार से भी काफी दूर हो गया और स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह भी। खास बात यह है कि इस जनवरी में जब उसके सिर में ट्यूमर डिटेक्ट हुआ, तब भी वह एक लेक्चर के सिलसिले में इंग्लैंड में था। 2015 में ही उसकी माताजी का निधन हुआ था, तब बहुत देर तक उससे पारिवारिक बातें होती रहीं। उसने बताया कि जब माँ सुशीला तिवारी अस्पताल में भरती थीं और कोमा में थीं तब उन्हें देखने के लिए वह डेढ घंटा उनकी बैड के पास बैठा था। मुझे याद ही नहीं कि इतनी देर इससे पहले माँं के पास कब बैठा था। इससे अपने काम के प्रति उसके समर्पण की ही झलक मिलती है।
इन दिनों पुश्किन कैलाश पर्वत के चारों ओर के इलाके में भारत, चीन और तिब्बत के ग्रामीण इलाकों में कैलाश सैटल्ड लैंडमोड प्रोग्राम पर कार्य कर रहा था, जिसका उद्देश्य वहाँ के पर्यावरण और परिवेश को संरक्षित करने के साथ ग्रामीणों को रोजगार मुहैया कराना था। बीते वर्षों में उसने बागेश्वर, पिथौरागढ, अल्मोड़ा, नैनीताल के हैडि़या बैडि़या के रिंगाल से उपयोगी वस्तुएं बनाकर ग्रामीणों को रोजगार देने और रिंगाल उत्पादों को राष्ट्रीय मार्केट उपलब्ध कराने का बीडा उठाया था जिसमें वह सफल भी रहा और दिल्ली हाट, चेन्नई, मुम्बई में इन उत्पादों को अच्छा रिस्पांस और मार्केट मिला भी। इन कार्यों में चिया के 34 कर्मियों का भरपूर सहयोग और परिश्रम भी शामिल रहा है।
अपनी अनोखी सोच के बलबूते इतने बड़े-बड़े कार्यक्रम चलाने पर पुश्किन और चिया को तमाम अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले, जिनमें जर्मन दूतावास द्वारा प्रदत्त पुरस्कार, 2012 में यूएसए का चंपियन आफ वीमेंस इकोनोमिक एम्पावरमेंट अवार्ड, स्पेशल मेंशन, मेडल आफ फ्रेंच रिपब्लिक हयूमन राइट्स अवार्ड शामिल थे। प्रतिष्ठित राॅकफेलर संस्थान के एनजीओ अवार्ड के फाइनल तक भी चिया उसीके बूते पहुँच सकी। इसके अलावा वह लीड (लीडरशिप फार एनवायरनमेंट एंड डवलपमेंट), अशोका सिनर्गो, यूएनईपी ईको पीस लीडरशीप चीन जैसी संस्थाओं का फैलो भी रहा।
चिया के लिये फंडिंग सहित हिमालयी पर्यावरण पर सेमीनार और लेक्चर के सिलसिले में वह अक्सर विदेश में होता था और उससे मुलाकातें, अब कम हो गई थीं। जब भी मालरोड में मिलता ’आप के साथ बैठना है बहुत सारी बातें करनी हैं’ कहता पर बैठने का मौका कभी न आता। मैं मिलने पर मजाक में कहता भी था कि कहीं से आ रहे हो या कहीं जा रहें हो ? मेरा आशय विदेश से होता था, यह समझकर वह हँस देता। हाल में हुई अंतिम मुलाकात में भी यही हुआ। उसने हँसते हुए कहा ’आप भी दा बस.., हां अगले हफ्ते इंग्लैंड जा रहा हूँ’। तब ये पता न था इस बार इंग्लैंड से वह कुछ उपयोगी तथ्य व जानकारियाँ लेने नहीं, बल्कि अपने भीतर पल रही जानलेवा बीमारी का खुलासा लेने जा रहा है जो 20 दिन के भीतर उसे लील गई। उसकी मृत्यु पर एक सटीक टिप्पणी एटीआई में वरिष्ठ अधिकारी रहीं सेवानिवृत्त श्रीमती रश्मि पांडे की थी, ’तुम जब भी मिलते थे हमें शिकायत रहती थी कि तुम बहुत जल्दी मेें रहते हो, सपने में भी न सोचा था कि इस दुनिया से जाने में भी तुम इतनी जल्दबाजी दिखाओगे पुश्किन…’