जय सिंह रावत
पहले राम प्रसाद बहुगुणा गये फिर आचार्य गोपेश्वर कोठियाल चले गये। उसके बाद तो जैसे सिलसिला ही शुरू हो गया। सत्यप्रसाद रतूड़ी गये। राधाकृष्ण वैष्णव के स्वर्ग सिधारने के बाद उमाशंकर थपलियाल की गाड़ी भी छूट गयी और उनके पीछे-पीछे राधाकृष्ण कुकरेती भी चल बसे। मेरे देखते ही देखते कुछ ही वर्षों के अंदर स्वतंत्रता आन्दोलन की संग्रामी पत्रकारिता का दौर समाप्त होते ही राष्ट्र के नव निर्माण के लिये जनपक्षीय और मिशनरी पत्रकारिता का झंडा उठाने वाले झंडाबरदार एक के बाद एक रुखसत होते जा रहे हैं।
आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई एक व्यक्ति स्वयं ही रिपोर्टर, स्वयं ही एडिटर, स्वयं ही कंपोजिटर और स्वयं ही अखबार का डिस्पैचर हो सकता है। मगर वास्तव में कभी यही सच होता था और राधाकृष्ण कुकरेती उन्हीं संपादकों में से एक थे। उस दौर के संपादकों की केवल इतनी ही जिम्मेदारियाँ नहीं थीं। उन्हें अखबार चलाने के लिये विज्ञापन भी जुटाने होते थे और अखबार का प्रसार बढ़ाने के लिये भटक-भटक कर ग्राहक या पाठक भी जुटाने होते थे। खून पसीना एक करके इस तरह से छपे अखबार की प्रतीक्षा पहाड़ के गाँवों में पाठकों को अपने परिजनों की चिट्ठियों की तरह होती थी। पाठक भी ऐसे कि उस साप्ताहिक का एक-एक शब्द चाट लेते थे। वे विज्ञापन, टेंडर नोटिस और अखबार की प्रिन्ट लाइन को तक पढ़ते थे।
देश की आजादी के तत्काल बाद भारत के नव निर्माण में अपना योगदान देने और समाज को सही दिशा देने के लिये जिन लोगों ने कलम का सहारा लिया उनमें से एक राधाकृष्ण कुकरेती भी थे। आजादी के आन्दोलन में बदरीदत्त पांडे, विक्टर मोहन जोशी, अमीर चंद बंबवाल और भक्त दर्शन जैसे कलम के सिपाहियों ने तो अंग्रेजों की तोप के मुकाबले के लिये अखबार निकाले ही थे। लेकिन जब आजादी मिल गयी तो पत्रकारिता के उद्देश्य भी स्वतः बदल गये। नये लक्ष्य को लेकर उस नये दौर की नयी पत्रकारिता के ध्वज वाहकों में कुकरेती भी शामिल थे। उन्होंने नये जमाने की नयी पत्रकारिता के साथ कदमताल करने के लिये 1956 में ’नया जमाना’ नाम से अखबार शुरू किया जो कि दशकों तक पिछड़ों, शोषितों, दलितों और सर्वहारा की आवाज बुलंद करता रहा। उससे पहले वह छात्र जीवन में ही काशीपुर से ’जन जागृति’ नाम का अखबार ( 1954-55) निकाल चुके थे।
राधाकृष्ण कुकरेती उत्तराखंड के उन गिने चुने संपादकों में से थे, जो सिर्फ पत्रकार नहीं रहे। वे एक साहित्यकार और वामपंथी विचारक भी थे। उन्होंने एक आंचलिक कथाकार के रूप में अपनी एक खास पहचान बनायी थी। उनके कहानी संग्रहों में ’घाटी की आवाज’, ’इंसाफ के मालिक़’, ’क्वांरी तोंगी’ और ’सरग दिदा पाणि’ शामिल हैं, जिनमें आम पहाड़ी जनजीवन का प्रतिबिम्ब नजर आता है। एक वामपंथी विचारक के तौर पर उनके साहित्य में भी गरीबों, पिछड़े क्षेत्रों और शोषितों की आवाज साफ सुनाई देती है। वे विचारों से क्रांतिकारी अवश्य थे, मगर उनके स्वभाव में मुझे कभी उग्रता नजर नहीं आयी। उनकी पत्रकारिता में एक तरह की सौम्यता झलकती थी। इसका कारण उनके अंदर बैठा साहित्यकार भी हो सकता है। उनकी शालीनता का ही नतीजा था कि वह एक पत्रकार के रूप में सदैव आदर के पात्र रहे। हम लोगों को उनकी विद्वता से मानसिक खुराक तो मिलती ही थी, पढ़ने-लिखने की प्रेरणा भी मिलती थी। देहरादून की कचहरी के निकट स्थित उनकी ‘नया जमाना प्रेस’ में बुद्धिजीवियों का जमघट लगा रहता था। कलक्ट्रेट में तो हर किसी को कभी न कभी, किसी न किसी काम से जाना ही होता है। अगर आप देहरादून की कचहरी गये तो नया जमाना प्रेस की राह कभी नहीं भूल सकते थे।
कुकरेती जी का जन्म सन् 1935 में पौड़ी गढ़वाल की उदयपुर पट्टी के नौगाँव में हुआ था। उन्होंने कक्षा दो तक अपने गाँव के पास के स्कूल में पढ़ा और दर्जा चार तक की पढ़ाई अपने ननिहाल अमोला में की। ऋषिकेश में ट्यूशन पढ़ा कर आठवीं तक शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने हाईस्कूल के लिये तत्कालीन इस्लामिया हाइस्कूल देहरादून में दाखिला लिया। इस्लामिया स्कूल आज का गांधी इंटर कालेज है। इसके बाद इंटरमीडिएट परीक्षा उन्होंने काशीपुर से पास की और उसके बाद वे देहरादून आ गये। यहाँ ‘नया जमाना’ का प्रकाशन-सम्पादन करने के साथ ही कालेज में पढ़ाई भी जारी रखी और समाजशास्त्र में परास्नातक डिग्री हासिल की।
राधाकृष्ण कुकरेती ने सन् 1952 संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली थी। बाद में सन् 1964 में पार्टी के विभाजन के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के उदय के बावजूद वे मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ ही रहे। इस दौरान भारत-सोवियत कल्चरल सोसाइटी के जिला सचिव के तौर पर उन्होंने सोवियत संघ की यात्रा भी की। बाद में कुछ मतभेदों के कारण वे श्रीपाद अमृत डांगे की कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये। लेकिन डांगे की मृत्यु के बाद वे फिर मूल पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में लौट गये, जिसमें वे जीवन के अंतिम क्षणों तक रहे। सन् 80 के दशक में वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिये देहरादून नगर सीट से चुनाव भी लड़े थे। एक कम्युनिस्ट नेता के तौर पर वे सदैव जनवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे। उत्तराखंड आन्दोलन में भी उनका योगदान उल्लेखनीय था। एक जमाने में जहाँ कुछ कम्युनिस्ट उत्तराखंड राज्य की माँग को गोरखालैंड के आन्दोलन से जोड़ कर उसे भी अलगाववादी आन्दोलन मानते थे, वहीं कुकरेती जैसे कामरेड भी थे जो कि इस पहाड़ी भूभाग के चहुँमुखी विकास के लिये उत्तराखंड राज्य को ही एक विकल्प मानते थे।
राधाकृष्ण कुकरेती का उत्तराखंड की पत्रकारिता में उल्लेखनीय योगदान रहा है। वे मेरे जैसे नौसिखियों के लिये हमेशा प्रेरणा स्रोत रहे। वे उत्तराखंड में श्रमजीवी पत्रकार संघ के संस्थापकों में से एक थे। किसी जमाने में कभी परिपूर्णानंद पैन्यूली तो कभी आचार्य गोपेश्वर कोठियाल यूनियन के जिला अध्यक्ष हुआ करते थे। यूनियन के प्रति कुकरेती जी की प्रतिबद्धता और ट्रेड यूनियनों के उनके अनुभव के चलते उन्हें हर बार यूनियन का महामंत्री बनाया जाता था और यूनियन में सबसे कम उम्र का सदस्य होने के कारण उनके सहायक के रूप में मुझे भी हर बार सह सचिव चुन लिया जाता था। यूनियन की बैठकें हमेशा आचार्य जी की छत्रछाया में युगवाणी प्रेस में हुआ करती थीं। यही नहीं, कुकरेती जी विश्वम्भर दत्त चंदोला शोध संस्थान के संस्थापकों में से भी एक थे। संस्थान के पंजीकरण के लिये जिन 11 सदस्यों के हस्ताक्षर हुए थे उनमें परिपूर्णानंद पैन्यूली, राधाकृष्ण कुकरेती और उत्तराखंड के प्रख्यात इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह पँवार के अलावा देवेन्द्र भसीन और मैं भी थे। यहाँ भी जब कमेटी बनी तो परिपूर्णानंद पैन्यूली अध्यक्ष और राधाकृष्ण कुकरेती महामंत्री चुने गये और अपनी आदत के अनुसार कुकरेती जी ने मुझे संस्था का मंत्री बनवा दिया। एक बार हमने छोटे अखबारों को संगठित करने के लिये उत्तर प्रदेश स्माॅल न्यूजपेपर एसोसियेशन का गठन किया तो उसमें भी कुकरेती जी ने मुझे ही अपना सहायक रखा। उस संगठन ने देहरादून से लेकर लखनऊ और दिल्ली तक कई सम्मेलन किये।
मुझ पर कुकरेती जी की कृपादृष्टि सदैव बनी रही। अपने अस्तित्व के लिये मेरे दशकों तक चले लंबे संघर्ष में कुकरेती जी की हौसला अफजाई सदैव बनी रही। आर्थिक कारणों से जब मेरे लिये अपना छापाखाना चलाना नामुमकिन हो गया तो अखबार छपाने के लिये मैं एक प्रेस से दूसरे प्रेस में भटकता रहा। समय से भुगतान न करने पर पे्रस के मालिक कई बार इज्जत उतारने पर उतारू हो जाते थे। अन्ततः मुझे कुकरेती जी के ’नया जमाना प्रेस’ की शरण लेनी पड़ी। मैंने शायद ही कभी उन्हें छपाई के पैसे यथासमय दिये हों। फिर भी उन्होंने मुझसे कभी पैसे नहीं माँगे। क्योंकि उन्होंने मुझे कभी पराया नहीं समझा। वे जानते थे कि उनकी तरह अखबार निकालना और पत्रकारिता करना मेरा जुनून है, जिसे मैं अपने बच्चों का हक मार कर पूरा कर रहा हूँ। जीवन के अंतिम दिनों में वे मुझसे कोई जरूरी बात करना चाहते थे। उनका संदेश मिलने पर जब मैं उनके पास गया तो वे भूल गये कि मुझे क्यों बुलाया था। इस विस्मृति का कारण उनकी पारकिंसन की बीमारी थी। बहरहाल मेरा जो कर्तव्य था मैंने भी उसे निभाने का प्रयास किया।
आजादी के दौर की संग्रामी पत्रकारिता की विरासत संभालने वाले पत्रकार अब एक-एक कर हमंे छोड़ रहे हैं। उनके प्रभाव के कम होने के साथ ही उनके चल बसने से उस दौर की पत्रकारिता के आदर्श भी अतीत के गर्त में समाते जा रहे हैं। पत्रकारिता में बाजारूपन हावी होता जा रहा है। आज के हालात को देख कर आश्चर्य होता है कि क्या कभी विक्टर मोहन जोशी, बदरी दत्त पांडे, रामसिंह धौनी, राजा महेन्द्र प्रताप सिंह, अमीर चन्द्र बम्बवाल, भक्त दर्शन, बैरिस्टर मुकुंदी लाल और बैरिस्टर बुलाकी राम, मनोहर पंत, गिरजा दत्त नैथाणी, पपिूर्णानंद पैन्यूली, श्यामचंद सिंह नेगी और कृपा राम मिश्र जैसे महान त्यागी और मिशनरी पत्रकार इसी भूमि में जन्मे होंगे?