कारी कमरी पर कुमाउनी रंग

नैनीताल समाचार  की  बैठ  होली  फोटो:प्रदीप पांडे

                                                                                   नैनीताल समाचार की बैठ होली                                                                      फोटो:प्रदीप पांडे

 

नलिन धोलकिया

मेरी दृष्टि में कुमाउनी होली, संगीत शास्त्र के कठोर विधि-विधान, ऊँच-नीच (छोटी धोती-बड़ी धोती), छुआछूत आदि के नागपाश से छूटकर, फिर एक बार मानवीय संवेदनाओं के वन-उपवन में कुलांँचें भरती हिरनी की तरह एक निरीह, सहज-सुन्दर, लोकभोग्य जीवंत गायन अभिव्यक्ति है। इसे होली-गायन की मस्ती भरी, निर्दोष बैठकों से अगवा करके विश्लेषण-विवेचन की विच्छेदन-मेज पर जडि़त करना अन्याय ही नहीं, बौद्धिक अनाचार भी है। इसके अतिरिक्त इस पर लिखने की मेरी अपात्रता के और दो सबल कारण हैं। एक यह कि मैं शास्त्रीय संगीत का पुरातनपंथी शिक्षक हूँ। यदि चेतन नहीं तो मेरे मन के अवचेतन स्तरों को, किसी अराजक विधा का खुलेआम सेंध लगाना संभव है कि स्वीकार्य न हो। और दूसरा कारण है कि अपने मैदानी जीवन की लम्बी अवधि में मैंने ‘कुमाऊँ’ या ‘कुमाउनी’ यह शब्द भी नहीं सुना था- न स्कूली इतिहास में, न ही भूगोल में। बेशक ‘परसों’ (तीस वर्ष पूर्व) नैनीताल आने के साल-छः महीने पहले मैंने मनोहर श्याम जोशी जी का ‘कसप’ पढ़ा ठैरा। परन्तु शरद बाबू, ताराशंकर के बंगाल की तरह मन के परदे पर कुमाऊँ की अपनी दुनिया का कोई स्पष्ट चित्र नहीं उभर पाया था। अपनी अनूठी, मौलिक लोकसंस्कृति से समृद्ध इस देवभूमि में मैं कोरी स्लेट लेकर आया था। बहरहाल, सतह के नीचे छिपे खजाने के विषय में कुछ भी न जानने के कारण ही जब पहली बार मैंने ठुमरी गायन की ही एक सरलीकृत, परन्तु रोचक प्रस्तुति पर ‘कुमाउनी होली’ होने के दावे की बात सुनी तो मेरे मन में तुरंत ही प्रतिरोध के स्वर उठे। यह घटना मेरे नैनीताल आने के प्रारंभिक दिनों की है। नगरपालिका के मेरे मित्र श्री रमेश चैधरी के आग्रह से मैं भी स्व. श्री पूरनलाल रेंजर साहब के पिटरिया के आगे स्थित बगीचे में शिवरात्रि मनाने गया था। रात को देर तक उनके शिवालय में भजन-पूजन हुआ। दूसरे दिन सवेरे हम सब बगीचे में बैठे थे। शहर से खूब दूर सुन्दर, शांत स्थान। भरपूर धूप खिली हुई थी। बाहर ही बूढ़े मालिज्यू चूल्हे पर तहरी बनाने में जुटे थे। दिव्य वातावरण। ऐसे में रेंजर सा. ने केसेट लगा दिया: ‘‘बाजूबंद खुल-खुल जा…..’’ खुश होकर मैंने कहा, ‘‘वाह, क्या सुन्दर ठुमरी आपने चुनी।’’ रेंजर साहब ने प्रतिवाद किया, ‘‘यह ठुमरी नहीं, कुमाउनी होली है।’’ मुझे आश्चर्य हुआ, ‘‘फैयाज खान साहब की भैरवी की प्रसिद्ध ठुमरी, कुमाउनी होली कहाँ से हुई ? और ये गायक कौन हैं ?’’ उत्तर मिला, ‘‘गायक नहीं, यह तो हमारे वरिष्ठ होलियार प्यारे साह जी हैं।’’ कुमाउनी होली ? संगीत सीखे हुए गायक नहीं, होल्यार! उस दिन मैं इन प्रश्नों से उलझा मन लेकर आश्रम वापस आया। परन्तु मेरे संगीत शास्त्र के बोझ से लदे मस्तिष्क में यह बात न आ पाई कि कुछ देर पहले मैं देवभूमि के जिस शांत, सुन्दर, दिव्य रूप से अभिभूत था, वह जीवंत भूमि का आनंद, प्यारे साह जी के माध्यम से सहज, सरल गायन में प्रस्फुटित हो सकता है। जबकि मैं जानता हूँ कि इतिहास एक भूक्षेत्र की सभ्यता को जोड़-तोड़ कर उठाता गिराता है, जबकि भूगोल बहुरूपा पृथ्वी संस्कृति के अनगिन रूपों में निरंतर स्वयं को अभिव्यक्त करती चलती है। कुमाउनी भूमि की आत्माभिव्यक्ति की गहराइयों में मैं उतर नहीं पा रहा था। इसी बीच उस वर्ष की कुछ होली बैठकों में मैंने ‘कुमाउनी होली’ सुनी। इसकी शास्त्रीय संगीत आधारित संरचना और संगीत में अप्रशिक्षित भद्रजनों की सहज, स्वाभाविक प्रतिभागिता से मैं प्रभावित तो हुआ, परन्तु कुमाउनी बोली नहीं, लोक-वाद्य नहीं, दुर्गम पहाड़ी जीवन की प्रतिच्छाया नहीं, दुधमुँहे बच्चे के रोने-हँसने की सी अबोध, स्वयंभू अभिव्यक्ति भी नहीं। तो फिर मैदानी दुनिया से आयतित इस गायन-प्रकार को ‘कुमाउनी’ की संज्ञा देने का क्या औचित्य है ? इन मूलभूत प्रश्नों के उत्तर, सुधिजनो के साथ की चर्चा-विचारणा में नहीं मिल पाए। परन्तु इसी बीच मेरा परिचय के. के. साह जी से हुआ। के. के. साह जी अर्थात कुमाउनी संस्कृति के जीते-जागते प्रतीक। उनके जीवन के ताने बाने में, रेशमी कपडे़ में उभरी रंग-बिरंगी आकृति की तरह, कुमाउनी जीवनशैली एकरूप हो गई है। आधुनिक यंत्र-त्रस्त संस्कृति के विकट दबाव के बावजूद आज भी उनके यहाँ मिक्सी में नहीं, बल्कि सिल-बट्टे पर ही दाल पीसी जाती है। अपनेे निर्मल, निखालिस संत स्वभाव के कारण कुछ ही समय में उन्होंने मुझे अपने परिवार के सदस्य की तरह अपना लिया। और उनके माध्यम से अनजाने में, तर्क-वितर्क की पहुँच के परे, अस्तित्व की उन गहराइयों में उतरता गया, जहाँ जीवन रस संचित होता है और सतह तक ऊपर उठकर रूप, रस, गंध आदि के संयोजन से जीवन सौंदर्य रूपायित होता है। वहीं मेरे अस्तित्व के उत्स विंदु में कुमाऊँ आकार लेने लगा। रस-भात, चुड़कानी, झोली-भात, डुबके, गबे और सिंगल-गोजे से लेकर आकाश से नाचते-थिरकते गिरते बर्फ-फूलों को थाली में इकट्ठी करके गुड़ के साथ खाने आदि के अनेक तरह के पहाड़ी स्वादों से मेरे उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर उभरने लगे। इसी सिलसिले में एक दिन साह जी का फोन आया, ‘‘नलिन जी, आज होली की बैठक है। आप शाम को पाँच बजे आ जाइये।’’ मेरी बुद्धि चकरा गई। दिसंबर का महीना। आज से पचीस वर्ष पूर्व का नैनीताल, विकट ठण्ड। चारों ओर उजाड़ प्रकृति। शाम होते ही सड़कें सुनसान। और ऐसे में होली ? उद्विग्न होकर मैंने पूछा, ‘‘मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। दिसंबर में होली कहा से आई ?’’ उत्तर मिला, ‘‘अरे आपको नहीं मालूम ? पौष मास के पहले इतवार से यहाँ होली शुरू हो जाती है ?’’ पौष मास में फागुन! पूरे भारत में ऐसी बेतुकी प्रथा कहीं हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। साहजी का निमंत्रण याने अकाट्य आदेश। आश्रम से समय से चला। रास्ते भर डर लगा रहा, ऐसी ठण्ड में कहीं रंगीन पानी की पिचकारी तो नहीं चलेगी ? साहजी के मकान के बाहरी कक्ष में बैठक की तैयारी की गई थी। संभव है यह मेरे मुग्ध मन की कल्पना मात्र हो, परन्तु इस कमरे में मुझे आभास हुआ जैसे यहाँ अतीत की कई पावन स्मृतियाँ संचित हैं, किसी प्राचीन देवथान की तरह। निरंतर गतिमान कालप्रवाह में शाश्वत की निश्चलता का स्पर्श ! बाकायदा पूरे विधि विधान के साथ महफिल शुरू हुई तो चाल-ढाल थी पूरी बासंती, परन्तु अघ्र्य दिया जा रहा था पतझड़ को! गणेश, सरस्वती वंदना के बाद बिरज में धूम मचाते कान्हा के लीला-प्रसंगों के आनंद-उमंग भरे वर्णन के बदले ‘भव भंजन गुण गाऊं’ और ‘क्या जिन्दगी का ठिकाना फिरत मन काहे भुलाना’ ऐसे गुरु-गंभीर विषयवस्तु से बोझिल रचनाएं गाई जाने लगीं, परन्तु आनंद के साथ। इस होली गायन को संज्ञा दी गई है ‘निर्वाण की होली’! सोचिये कहाँ निर्वाण का गहरा अवसाद और कहाँ होली का छलकता, लहराता आनंदातिरेक ? पूरी तरह से भारतीय दर्शन का प्रतीक। अंत में भी आनंद, आरम्भ में भी आनंद! चिदानंद रूप, शिवोहं शिवोहं… इसके बाद तो फिर ऋतुचक्र की गति से कदम मिलाते हुए इस शीतकालीन होली-गायन के शांत-रस में और भी रस-धाराएँ घुलने-मिलने लगीं। ऋतुराज वसंत के आते ही, रसराज श्रृंगार रस से होली की बैठकें मुखर हो उठीं। साथ ही नैनीताल में होली-बैठकों की धूम मच गई। के. के. साह जी का भवानी निवास तो नए पुराने सभी होल्यारों के लिए ठहरा तीर्थस्थल। इसके अतिरिक्त नवीन लाल साह जी के यहाँ की बैठक की भी रसिकजन आतुरता से प्रतीक्षा करते थे। शारदा संघ तो उस समय संगीत का गढ़ सा था। वहां रोज महफिल जमती थी। इसके अलावा घरों में आयोजित बैठकें तो थीं ही। और इन सभी बैठकों की रसधाराओं का संगम होता है ‘नैनीताल समाचार’ के होली-मिलन में। उस समय के अद्भुत वातावरण को आज भी बम्बई से आया मेरा एक इंजीनियर भांजा भुला नहीं पाया है। इस अनुभव की स्मृतियाँ, बम्बई के भीड़ भरे असह्य वातावरण में उसको सुकून दे जाती हैं। अंत में इतनी सारी बैठकों में श्रोता की हैसियत से शिरकत करते-करते शास्त्रीय संगीत के मेरे रूढि़-रुक्ष ज्ञान की कारी कमरिया पर कब इस विलक्षण होली-गायन के चटकीले चमकीले रंग चढ़ गए, मुझे पता ही नहीं चला। परिणामस्वरूप शास्त्रीय संगीत के सारे बड़े-बड़े उस्ताद-पंडितों को भूल कर मैं गिरधारी बाबू, उर्बिदा, रमेश जी, कन्नू जी, हेम जोशीजी, पाण्डे मास्साब आदि वरिष्ठ होलियारों और उनका साथ देते अनेक उभरते गायकों के गायन के रसास्वादन में मस्त हो गया। इस अनूठी, मौसमी गायन शैली से इतना प्रगाढ़ नाता जुड़ने के बाद स्वाभाविक था कि मुझे ‘कुमाउनी-होली’ का साक्षात्कार होता। मैं मान गया कि प्यारेलाल साह जी का ‘बाजूबंद खुल खुल जा’ उस्ताद फैयाज खान साहब की ठुमरी नहीं, शुद्ध साफ ‘कुमाउनी-होली’ थी। अंत में एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरा उपरोक्त निष्कर्ष केवल एक भावविभोर, संवेदनशील श्रोता की सर्वथा आत्मपरक, निजी प्रतिक्रियात्मक अनुभूतियों पर ही आधारित है ऐसा न मानें। ‘कुमाउनी होली’ की बहुत सी ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनके कारण इसको नितांत स्वतंत्र, अनूठी गायन शैली कहे जाने का अधिकार प्राप्त होता है। परन्तु यह मीमांसा फिर कभी। संभवतः ‘अगली होलिन’ में।

Leave a Reply

  1. मुझे कुमाउनी होली का पहला परिचय १९६९-७० में मसूरी में हुआ, मेरे गणित के गुरूजी लोहनी जी के घर पढ़ने जाता था – बंसन्त पंचमी थी – और होली गए रहे थे -समजह ज्यादा नहीं आया पर अच्छा लगा गुरूजी ने समझया – गढ़वाल के जैसी इलाके से तुम आते हो उस होली का इतना जोर नहीं होता पर कुमाऊं और दुस्सान्त पर होली गजब की होती है धीरे धीरे समझ आने लगी , यंहा मेरठ में जब कंही होली गयी जाती है मैं जरूर जाता हूँ – तन मन सरोबार हो जाता है – हिमालय की डाँडी कांठियुं की खुद लग जाती है