चन्द्रशेखर बड़शीलिया
संघर्ष का दूसरा नाम था शैलेश मटियानी। उन्हें हमसे बिछुड़े हुए बारह साल हो गये परंतु अपने प्रखर व्यक्तित्व व जादूई कृतित्व के कारण वे सदैव याद किये जायेंगे। 24 अप्रेल 2001 को जब उनके निधन का समाचार मिला तो यकायक यकीन न हुआ लेकिन जो उनके नजदीकी थे वे जानते थे कि अंतिम वर्षों की भयावह स्थितियों में भी रचनारत मटियानी को बीते दस वर्षों ने जैसे जीते जी मार दिया था।
पर विडम्बना ही थी कि उनकी मौत भी हिन्दी के प्रतिष्ठान का ध्यान कहाँ आकृष्ठ कर सकी। हिन्दी के उनके साथी लेखकों के पास भी उनकी मौत पर शोक संवेदना व्यक्त करने का समय नहीं था। दिल्ली के शहादरा मनोचिकित्सा केन्द्र में उनके अंतिम दर्शन के लिये कुल जमा दस लोग ही जुट पाये थे। सच में अपनी रचनाओं के जरिये संघर्ष करने वाले मटियानी जैसे लेखक की जिंदगी भी स्वयं में कितनी निरीह होती है।
हिन्दी साहित्य में मटियानी जैसा जीवन जीने वाला लेखक बहुत कम हुआ है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछीना कस्बे में 14 अक्टूबर 1931 को एक गरीब परिवार में जन्मे मटियानी ने भले ही हाईस्कूल तक शिक्षा पाई थी पर बचपन से ही सरस्वती की उन पर असीम कृपा थी। बारह वर्ष की उम्र में अपने माता-पिता को खोने के बाद अल्मोड़ा में चाचा की दुकान में काम किया और यहीं से बाल कहानियाँ लिख कर लेखन की शुरुआत की।
जीवनयापन के लिये हल्द्वानी से इलाहाबाद होते हुए मुंबई पहुँचे। वहाँ फुटपाथ पर सोये, ढाबों में जूठे बर्तन धोये पर कभी समझौता नहीं किया। उनका मुंबई का संघर्ष 1959 में उनके पहले उपन्यास ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ में पूरी शिद्दत के साथ उभर कर आया। एक जगह पर शैलेश ने लिखा है- लिखना लेखक होना, अपने मानवीय स्वत्व के लिये संघर्ष करने का ही दूसरा नाम है और जब यह दूसरों के लिये संघर्ष करने के विवेक से जुड़ जाता है तभी लेखक सही अर्थों में साहित्यकार बन पाता है।
एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में भी उन जैसा मिलना मुश्किल है। एक छोटी सी अवधि में मुझ जैसे जिन बहुत से लोगों को उनके साथ कुछ निजी और आत्मीय क्षण बिताने का अवसर मिला होगा, वे उनकी उन्मुक्तता, आत्मीयता व जीवंतता से पुलकित- विस्मित हुए बिना न रह सके होंगे। ऐसे लोगों की संख्या भी काफी बड़ी थी जो पहली मुलाकात में ही उनके नारियल जैसे सख्त बाहरी खोल के भीतर मौजूद उजली गिरी और शीतल मीठे पानी का तृप्तिदायक स्वाद पा सके थे। वे अपनी उम्र से बड़ों के साथ जहाँ सहज प्रसन्न भाव से उठते-बैठते थे वहीं अपने से छोटे के साथ भी तन्मय हो जाते थे। उनके मन के किसी कोने में कहीं माँ की सी ममता थी तो कहीं बच्चों की सी हठधर्मिता भी।
मटियानी अपनी लेखकीय कड़क के लिये भी जाने जाते थे। शायद यही कारण था कि वे किसी साहित्यिक बिरादरी से न जुड़ पाये और न ही उन्हें सम्मान तथा पुरस्कार मिल पाये जिसके वे असल हकदार थे। हिन्दी का अद्भुत लेखक जिसने- दो दुःखों का एक सुख, पाप मुक्ति, हारा हुआ, तीसरा सुख, सुहागिनी, अद्र्धांगिनी, बर्फ की चट्टानें जैसी आंचलिक कहानियाँ तथा बोरीवली से बोरीबंदर तक, होलदार, गोपूली गफूरन, मुठभेड़, माया सरोवर, सावित्री, चंद औरतों का शहर जैसे चमत्कृत कर देने वाले उपन्यासों की रचना की, हमारी चर्चाओं से ज्यादातर बाहर ही रहा, जबकि लोग न लिखने के कारणों पर लिख-लिखकर चर्चा में बने हुए हैं।
शैलेश उन चुनिंदा लोगों में से थे, जो यहाँ-वहाँ के कार्यों के द्वारा नाम कमाने के बजाय अपनी रचना के जरिये बोलना ज्यादा पसंद करते थे। वे कहते भी थे कि रचना के द्वारा परोसी गई बात का ज्यादा अर्थ होता है। अप्रेल 1995 में छोटे पुत्र मनीष की इलाहाबाद में हत्या कर दिये जाने के बाद वे कई बार मानसिक असंतुलन के शिकार हुए पर लेखन तब भी जारी रहा। अंतिम साँस तक समझौता न करने की जिद्द पर अड़े रहे। निरंतर लिखते रहे, यह सोचे बिना कि उन्हें कोई नोटिस में ले रहा है या नहीं।
बाद के वर्षों में मटियानी राष्ट्रगान, राष्ट्रभाषा व संविधान पर लिखे अपने कुछ अखबारी लेखों के कारण चर्चा में रहे। वे ‘जन-गण-मन’ को राष्ट्रगान न स्वीकार कर वंदेमातरम को राष्ट्रगान का दर्जा देने की मांग करते थे। साहित्य जगत को सबसे ज्यादा खुन्नस उनकी कुछ ऐसी ही अखबारी टिप्पणियों को लेकर थी। उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी इसका उन्हें कतई अफसोस नहीं था और वे कहते थे कि हमें हिन्दी न आये तो यह अवश्य चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होनी चाहिये।
कदाचित इस दौर में ‘रेणू’ के बाद मटियानी आंचलिक कहानियों के सर्वथा अनोखे रचनाकार थे। उनकी कहानियों में पहाड़ का गरीब अभावग्रस्त आदमी पहली बार उभर कर सामने आया। प्रेमचंद की तरह उनकी कहानियों में शिल्पकार, मुसलमान, इसाई व काश्तकार भी पूरी गरिमा के साथ स्थान पाते हैं। वे एक बड़े लेखक इसलिये भी हैं क्योंकि उन्होंने एक आम आदमी को अपनी रचनाओं का नायक बनाकर पहचान बनायी।
इसमें दो राय नहीं कि वे अपने समय के एक बड़े लेखक थे। मटियानी को पढ़ कर ही हम उन्हें समझ सकते हैं। कदाचित वे एक ऐसे लेखक के रूप में पहचाने जा सकेंगे। जो केवल अच्छा ही नहीं उत्कृष्ठ भी है और जिसके प्रति आने वाले युवा लेखक केवल उन्मुख भर न हों बल्कि जिसे वे प्रमुख भी मान सकें।
यह लेख मेरे द्वारा प्रेषित किया गया था । पर दूसरे के नाम से प्रकाशित है ।