उत्तराखण्ड के सभी शिल्पी निर्विवाद रूप से अनुसूचित जाति की श्रेणी में आते हैं

cast-censusपिछले दिनों उत्तराखंड के शिल्पकारों को लेकर एक अनावश्यक बहस छिड़ गई। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 में कुछ दलित जातियों सामाजिक, आर्थिक एंव शैक्षिक विकास के लिए एक अनुसूची बनाई गई और इस अनुसूची में सम्मिलित जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने 18 सितम्बर 1976 को उन्हीं 66 जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में सम्मिलित किया, जिन्हे संविधान में रखा गया था। अग्रणी संसोधन 2000 में उत्तराखण्ड के लिए भी सूची जारी की गई, जिसमें ‘रावत’, जो कि 61वें क्रम में थे को हटा दिया गया और शेष 65 की सूची जारी की गई। इनमें अगारिया, बाधिक, बढी, बहेलिया, बैगा, बैसवार, बजानिया, बाजगी, बालहर, बलाई बाल्मीकि, बंगाली, बनमानुस, बाँसफोड़, बरवार बसोड़, बवारिया, बेलदार, बेरिया, भान्तू, भुयाँ, भुयाँर, बोरिया, चमार, धूसिया, झूरिया, जाटव (चारों एक ही क्रम में), छेरो, डबगार, घनगार, धानुक, धारकार, धोबी, डोम, डोगार, डुसाप, पारमी, घारिया, गोण्ड, ग्वान, हबूरा, हरी, हेत्ता, कलाबाज, कंजड़, कपाडि़या, काड़वाल, खरैता, खरनाड़, खटीक, खरोत, कोल, कोड़ी, कोरखा, लालकेगी, मझवार, मजहबी, मुसाहर, नट, पन्खा, पहाडि़या, पासी, तरमाली, पातरी, सहारिया, सनौरहिया, सनसिया, शिल्पकार तथा तुरहा हैं। इन जातियों में उत्तराखण्ड की जातियों-उपजातियों के नाम नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड की लगभग सभी जातियाँ शिल्पकार की श्रेणी में सम्मिलित हैं। इसी का उल्लेख करते हुए अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र भी जारी किए जाते हैं। सभी जातियों, उपजातियों को सूचीबद्ध करना श्रमसाध्य कार्य है। तो जो सूची जारी की गई है, उसी को यदि अक्षरशः माना जाए तो एक प्रतिशत लोग भी इसके अन्तर्गत नहीं आ पायेंगे। शिल्पकार कोई एक नहीं बल्कि शिल्पी को शिल्पकार कहा गया है। उसी के अन्तर्गत उत्तराखण्ड की सभी दलित जातियों को अनुसूचित जाति के अन्तर्गत रखा गया है।

उत्तराखण्ड के इस वर्ग को आर्य एंव मूल निवासी के रूप में माना जाता है। बाहर से आने वाली तथाकथित उच्च जातियों ने इस मूल समुदाय से अपने दैनिक जीवन में आने वाले कार्यों को करवाया तथा इनका स्तर गिरता गया। कार्य एवं शिल्प के आधार पर इनका विभाजन किया गया है। जैसे ताँबे के बर्तन वाले को टम्टा, लोहे के औजार बनाने वाले को लोहार, बाँस की टोकरियाँ बनाने वालों को रूडि़या, मकान बनाने वाले को ओड़, अनुसूचित जाति के लोगों के पुरोहित को कोई, लकड़ी का काम करने वाले को बढ़ई, ब्याह-शादियों में तिमिल पत्रों की व्यवस्था तथा चूल्हा बनाने वाले को पौहरी, कोल्हू से तेल निकालने वाले को तेली या भूल आदि अनेक उपजातियों के नाम से जाना जाता रहा है। तत्कालीन उच्च जातियाँ, जो इनके कार्यो/ व्यवसाय को टैप करती थीं, उन्हें सौकार या गुसैं के नाम से जाना जाता रहा था। ये जातियाँ वर्ष भर के पारिश्रमिक के बदले प्रत्येक फसल कटने के बाद ’55 वार’ के रूप में लेते थे। एटकिंसन ने अपने हिमालयी गजेटियर में उल्लेख किया है कि प्रथम जनगणना 1872 के अनुसार तत्कालीन कुमाऊँ एवं गढ़वाल में अनुसूचित जातियों के अन्तर्गत 1,04,936 अर्थात 10 फीसदी आबादी थी। इन्हें चार वर्गों में कार्य के आधार पर बाँटा गया था, जो उनके आपसी स्तर को भी दर्शाता था। प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत बोली, टम्टा, लोहार, ओढ़, आदि थे, जिनकी आबादी लगभग 44,000 थी, दूसरे वर्ग में लगभग 11,000 के आबादी के अन्तर्गत रूडि़या, छिम्पार, आगरी, पौहरी व भूल आते थे। तीसरे क्रम में चमार, मोछी, चुकमियाँ, हुड़किया आदि की आबादी 1872 में लगभग 8000 थी। चौथे और अन्तिम में सबसे निचले स्तर पर संगीतज्ञ, नर्तक, वादक, बाजीगर, दर्जी, ढोली, भाट (वृन्दीजन) आदि को सम्मिलत किया गया। वर्ष 1931 के बाद जातिवार जनगणना नहीं हुई। 1931 दलित श्रेणी के अन्तर्गत 3,12,620 आबादी थी, जो तत्कालीन आबादी की लगभग 16.97 फीसदी थी। पौ (1896) ने भी अपने गढ़वाल बन्दोबस्त में पूरे समाज को पाँच भागों में बाँटा है औैर अनूसूचित जाति की आबादी 15.80 फीसदी होने का उल्लेख किया है।

जनगणना वर्ष 2011 के अनुसूचित जाति के अनुसार आँकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन 2001 में इस वर्ग के अन्तर्गत 15,17,186 लोग थे। यह उत्तराखण्ड की आबादी का 17.87 फीसदी था, जिसका मात्र 17.2 प्रतिशत शहरों में रहता था। अन्य वर्गों की भाँति इनमें भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या कुछ कम है। सेना एवं व्यवसाय में इनकी भागीदारी अभी भी अपेक्षा अनुरूप नहीं है।

उत्तराखण्ड से मूल रूप से सुनार, नाई तथा गोस्वामी को ही पिछड़ी जाति में सम्मिलित किया गया है। इनके अलावा शिल्पी/ दलित/ हरिजनों को अनुसूचित जाति के अन्तर्गत रखा जाता है। अनावश्यक रूप से मुद्दे को विवादित करने के बजाय जो परम्परा से चली आ रही है, उसे ही बनाए रखा जाना चाहिये, जिससे समाज में सौहार्द, भाईचारा तथा समन्वय बना रहे। यदि कुछ नई जातियाँ उत्तराखण्ड में आकर बसी हैं और उन्हें अपने मूल प्रदेश में जो दर्जा प्राप्त था, उसी को वे पाना चाहती हैं तो उन्हें उस वर्ग में सम्मिलित करने में आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए।

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  1. यदि २००० कि संशोधित आरक्षण सूची में लोहार बढ़ई ताम्रकार शिल्पकार में समाहित हैं तो पिछड़ी जाति कि सूची में इनका नाम क्यों रखा गया है? वास्तविकता ये है कि अनुसूचित जाति का आरक्षण पिछडो को दिया जा रहा है और क्षत्रिय और ब्राह्मण पिछड़ी जाति का आरक्षण खा रहे हैं उत्तराखंड में

  2. लेखक ने बड़ी चतुराई से ये लेख लिखा है, कोलियो का नाम लिए बिना कोलियो पर कटाक्ष किया गया है। परन्तु कोली का नाम लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। जबकि जीन भी समुदायों का नाम लिखा गया है, उनसे कोलियो की संख्या ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं होगी।