11 बार कार्यकाल बढ़ाने के बाद आखिरकार दीक्षित आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप ही दी। इस रिपोर्ट में क्या होगा इसके लिये माथापच्ची करने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह आयोग बनाया ही इसलिये गया था कि गैरसैण राजधानी न बन सके। मान लो बिल्ली के भाग्य से छींका फूट जाये और आयोग ने गैरसैण की संस्तुति कर भी दी हो तो भी क्या गैरसैण राजधानी बन पायेगी ? मानें या न मानें, गैरसैण नाम का यह स्थान उत्तराखण्ड की राजनैतिक चौसर बन गया है, जिस पर सभी पार्टियाँ अपनी-अपनी गोटियाँ फिट कर रही हैं। गजब की बात यह है कि इस चौसर में सब के सब शकुनि हैं और किसी भी प्रकार से इस मुद्दे को उलझाये रखना चाहते हैं।
गैरसैण मात्र राजधानी के लिए प्रस्तावित एक स्थान मात्र नहीं है, बल्कि यह राज्य के भविष्य की उस योजना का नाम है जिस के लिए राज्य निर्माण का महान आन्दोलन हुआ था। उत्तराखण्ड के साथ उसके जन्म से ही किस-किस तरह के राजनैतिक खेल खेले गये हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। इसके साथ बने अन्य दोनों राज्यों (झारखण्ड व छत्तीसगढ़) को उनका नाम, राजधानी और भूगोल संसद से पारित कानून में ही मिल चुके थे। परन्तु राज्य आन्दोलन का अग्रणी उत्तराखण्ड इन तीनों में ही उलझकर रह गया। एक विशुद्ध पर्वतीय राज्य की माँग को ठुकराकर तत्कालीन राजनीति ने इसे एक ‘छोटा राज्य’ मात्र बना दिया। नाम बदल दिया गया और भूगोल अनिश्चित रहा। आज भी अधिकांश परिसम्पतियाँ उत्तर प्रदेश द्वारा संचालित हो रही हैं। राजधानी का तो जिक्र ही छोड़ दिया गया। बिना राजधानी का यह राज्य तभी से राजनीति के लिए मुफीद स्थान बन गया। नये परिसीमन के बाद तो यह राज्य पर्वतीय कम और मैदानी अधिक हो गया है।
वह दिन दूर नहीं, जब यहाँ अलग से पर्वतीय विकास मंत्रालय का गठन करना पड़े। रही राजधानी, तो इतिहास गवाह है कि गैरसैण के लोगों ने एक दिन भी नहीं कहा कि हमारे यहाँ राजधानी बनाओ। राज्य के बुद्धिजीवियों, हितचिंतकों, भूगोलवेत्ताओं, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों ने पूरी समझ और शोध के बाद ही तय किया था कि यदि उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ तो इसकी राजधानी के लिये गैरसैण से अधिक उपयुक्त स्थान कोई नहीं है। संदर्भ तो यहाँ तक बताते है कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहर लाल नेहरू ने आश्वसन दिया था कि गैरसैंण को देश की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की संभावनाओं की तलाश की जायेगी। दुर्भाग्य से यह योजना पं. नेहरू के बाद ही गायब हो गई। राज्य बनने के बाद भी वह दुर्भाग्य गया नहीं है। देश की तो दूर, गैरसैंण को राज्य की राजधानी न बनाने के लिये कितने कुतर्क, षड़यंत्र और खेल खेले जा रहे हैं। सरकार के पास वर्तमान रिपोर्ट सौंपने वाला आयोग भी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
विभिन्न राजनैतिक दलों ने ही इस जनभावना को जन्म दिया कि राज्य की राजधानी गैरसैंण होगी और इसीलिये अब तक हुई समस्त रायशुमारियों में सबसे अधिक लोगों ने गैरसैंण को ही राजधानी के लिये उपयुक्त बताया है। परंतु राजनीति जो न करे, वही कम है। जो पार्टियाँ जनहितों की बात करते हुए गैरसैंण का पक्ष लेती थीं, वही अपने स्वार्थों के कारण अब गैरसैंण की विरोधी हो गई हैं। उनके तर्क उनके अपने नहीं हैं, बल्कि जहाँ जो तर्क उन्हें फायदा पहुँचा सकता है वहाँ उसी प्रकार की बातें करने में सब पार्टियाँ माहिर हो चुकी हैं। ‘आया राम तो आयाराम’ और ‘गयाराम तो गयाराम’। मैदानी क्षेत्रों में कछु और बयान तो पर्वतीय क्षेत्रों में कुछ और बयान। राजधानी के मुद्दे पर सब एक-दूसरे की ओर देख रहे हैं कि यदि जनता ने स्वीकार किया तो ‘हमने किया’ और विरोध किया तो ‘हमने पहले ही कह दिया था’ कहने की सहूलियत रहे।
गैरसैंण के विरोध में सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत तर्क दिया जाता है कि यहाँ राजधानी बनाने के लिये सरकार को अपने खजाने का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च करना पड़ेगा। आखिर बिना खर्च किये कौन सी राजधानी बनाई जा सकती है ? मान भी लें कि राजधानी के लिये पर्वतीय भाग में बड़ा निवेश करना पड़ेगा तो इससे क्या बज्जर पड़ जायेगा ? क्या सरकार का बजट देहरादून या आई.डी.पी.एल. या रामनगर या अन्य कहीं के लिये ही आरक्षित है ? राज्य के दूरदराज क्षेत्रों में क्या सरकार खर्च नहीं करती या करेगी ? यदि गैरसैंण जैसे स्थानों पर खर्च ही नहीं करना है तो राज्य का क्या अर्थ है ? गैरसैंण राजधानी बनने पर यदि थलीसैंण-पौड़ी, नारायणबगड़-गोपेश्वर, ग्वालदम-बागेश्वर, उफरैंखाल-रामनगर, देघाट-रानीखेत की सड़कें बन जाती हैं तो क्या इनका फायदा जनता को न मिलेगा और यदि ये सड़कें उत्तराखंड राज्य में भी नहीं बननी हैं तो फिर उ.प्र. क्या बुरा था ? राजधानी गैरसैंण बने या न बने, खर्च तो सरकारों को यहाँ करना ही पड़ेगा इसलिये राजधानी के विरुद्ध यह तर्क चालबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
सुविधाओं की बात करना भी उचित नहीं है। गैरसैंण या अन्य पर्वतीय स्थानों में सुविधायें नहीं हैं, इसीलिये तो राजधानी बनाने की बात की जा रही है। यदि वहाँ पहले से ही पर्याप्त सुविधायें होतीं तो फिर राजधानी को प्लेट में रखकर चाटना था ? हवाई स्टेशन के लिहाज से गैरसैंण कोई समस्या नहीं है। जितनी दूरी रामनगर से पंतनगर की है या देहरादून से जौलीग्रांट की है, उससे भी कम दूरी गैरसैंण से गौचर की है। रास्ते अवश्य पहाड़ी हैं, परंतु यह कोई दोष नहीं है। हिमालयी राज्यों में यदि पहाड़ी रास्ते नहीं होंगे तो फिर कहाँ होंगे ? अब तक सरकारों ने यदि ये रास्ते ठीकठाक बना लिये होते तो फिर जनता को लामबंद होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
राज्य के केंद्रीय स्थान के लिहाज से तो गैरसैंण से बेहतर कुछ है ही नहीं। प्रत्येक कोने से गैरसैंण की औसत दूरी बराबर है। ऐसी स्थिति न देहरादून के साथ है, न रामनगर के, न ऋषिकेश के और न कोटद्वार के। राज्य का एक निवासी राजधानी में दो दिन में पहुँचे और दूसरा दो घंटे में तो इसे अन्याय ही कहेंगे।
जनभावनाओं की बातें तो खूब प्रचारित की जा रही हैं, परंतु ‘जनता’ कौन है इसे कोई नहीं जानता। इसी राजधानी आयोग ने ‘जनता’ के नाम पर कुछेक शहरी लोगों से बातचीत की और सबकी ओर से उसे जनता का फैसला बता दिया। आम आदमी को तो पता भी नहीं चल पाया कि आयोग ने कब और कैसे राजधानी पर बातचीत तय की। न तो अखबारों में विज्ञापन दिये गये और न टी.वी. पर। फिर हुए मुद्दे पर दिये गये बयानों व सम्मतियों को जनता की राय नहीं कहा जा सकता। अभी भी राजधानी के लिये अलग-अलग स्थानों के पक्षधर इसी बातचीत को ही प्रमुखता देकर अपने निजी विचारों को ‘जनता की आवाज’ करार दे रहे हैं।
राजधानी को लेकर लाख टके की बात यह है कि यह संसद में ही तय कर दिया जाता कि राजधानी देहरादून बनेगी तो फिर इस आयोग की नौटंकी क्यों होती ? नौटंकी इसीलिये कि रायपुर और राँची के लिये सर्वेक्षण नहीं हुआ, कोई किन्तु-परंतु नहीं लगा, जबकि गैरसैंण के लिये ये सब अभी भी जारी है। सरकार को गैरसैंण राजधानी नहीं बनानी है तो न बनाये, परंतु इतना तो अवश्य बताना पड़ेगा कि यहाँ राजधानी में 80 प्रतिशत के लिये क्या गुंजाइश है ? राज्यवासियों के लिये उत्तराखंड क्या सिर्फ उ.प्र. पर खींची एक लकीर मात्र है या इसकी अपने लोगों के प्रति कोई जिम्मेदारी भी है ?
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि स्थायी राजधानी बनने के बाद क्या राज्य की व्यवस्था ठीक हो जायेगी? असली समस्या तो व्यवस्था की है। भ्रष्टाचारमुक्त व पारदर्शी प्रशासन के लिये क्या योजना है ? क्या नई राजधानी नई कार्यसंस्कृति का संचालन करने या करवाने में सक्षम होगी ? अभी भी वक्त है कि यदि सरकार की मंशा देहरादून को ही स्थायी राजधानी बनाने की है तो वह बिना विलम्ब कि ये देहरादून को स्थायी राजधानी घोषित करे और राजधानी आयोग की रिपोर्ट को किसी उचित स्थान में थाप दे, अन्यथा गैरसैंण को राज्य की राजधानी घोषित करके एक नई कार्यसंस्कृति और नई व्यवस्था आरम्भ करे। राजधानी नामक यह नाटक अब अधिक दिनों तक नहीं दिखाया जाना चाहिये, अन्यथा जनता हूटिंग करने को बाध्य हो जायेगी।
आपकी बेबाक रिपोर्ट पसन्द आई। गैरसैंण के नाम पर नाक-मुँह सिकोडने वालों को एक चुनौती है मेरी कि जिस तरह ये लोग एक दिनों उत्तराखण्ड राज्य की मांग को बचकाना मांग और आन्दोलन को सिरफिरों का पागलपन कहते थे, जब उत्तराखण्ड बना तो कुकुर-बिराऊ की तरह लालबत्ती मांगने चले आये उत्तराखण्ड। हम सबने देखा कि कैसे बेशर्मी से अपने आप को सबसे बड़ा आन्दोलनकारी इन लोगों ने अपने को अब घोषित करना शुरु कर राजनीतिक रोटी सेंकी हैं।
ठीक ऐसे ही अब जब राजधानी गैरसैंण पहुंचेगी और एक दिन जरुर पहुंचेगी, तो ये लोग जो आज नाक-मूख सिकोड़ रहे हैं, इस मुद्दे पर भ्रम पैदा कर रहे हैं, झक मारकर बेशर्मों की तरह गैरसैंण आयेंगे और कहेंगे, हमने कब गैरसैंण का विरोध किया, हम तो हमेशा कहते थे कि जनभावना के अनुसार राजधानी केन्द्र में बने।…………
Dear Sir,
I am fully agree with your views. At the same time, it is disheartening to note that some have so easily forgotten the scarification of Uttarakhand State Martyrs.
Dehradoon was never the proposed Capital of Uttarkhand instead it has become an imposed Capital.
mai aapaki baat se puri tarah se sahamat hun/ gairsin hi sahi jagah hai rajdhani ke liye, agar sarkaar ko yah manjur nahi to sthaai raajdhani ka naam ko ujaagar karen/
uttarakhand sarkaar ki karya shaili se pataa lagataa hai ki raajdhani dhudhane ke liye prarmbhik 9 varsh lagaa diye/ aam janataa ka kyaa haal hotaa hai esi se anumaan lagaaya ja sakata hai/
Khim Singh Rawat
Gairsain is central
Place for everyone second it lies both in kumoun and garwal centre point for communal harmony and more over rest other Himalayan state have capital in hilly area why not in UK