डंगरिया एक-एक कर झूमने लगे हैं। लोहाखाम के पुजारी से परात में से मुट्ठी भर-भर कर अक्षत लेकर नौत्वान करने लगे हैं। चारों ओर अक्षत छिटका कर दिशा मारने लगे हैं। लोहाखाम पुजारी हरीश चंद्र और डंगरिया सोबन सिंह ने हाथ में चैंरी गाई की पूँछ पकड़ ली है। वे उसे झुलाते हुए लोगों को झाड़ रहे हैं।
द दुंग…दुंग….दुंग द दुंग….दुंग…..दुंग !
जगरिया गणेश पूरी रौ में
गाता जा रहा है:
“अगाश में क्व छैं ? इंदर राजा
पंयाल में क्व छैं? बैशी नाग
जैक सिर में चैंखुंडा धरती,
नौखुंडा मनिमा
गैला पंयाल, ऊंचा हिवाल
चार दिशा छैं, चार भुवन छैं….”
द दुंग….दुंग….दुंग!
द दुंग…..दुंग….दुंग !
ब र्र र्र र्र….कई डंगरियों पर औतार आ गया है। वे थर्राने लगे हैं। पनुदा भी नाचते-नाचते अक्षत छिटका रहे हैं। लोहाखाम पुजारी भी कंपकंपा कर नाचने लगे हैं। किसी ने बीच में खलकते (तपते) अंगारों से भरा सग्गड़ लाकर रख दिया है। डंगरिए उसकी आग पर भी अक्षत मार रहे हैं। भीड़ बढ़ती जा रही है। कोई जोर से कह रहा है, ‘आब हिटा (चलो) बाहर‘ खोलिखाँड़ में। खोलीखाँड़ यानी अंगीठे के पास खुले में पंचनाम देवों के दुलैंच (आसन)। अंगीठा धू-धू कर धुधक रहा था। जमीन पर दुलैंच बिछ गए हैं। दुलैंचों पर लोहाखाम पुजारी और गोरखनाथ जागा (मंदिर) के डंगरिए बिराजमान हो गए हैं। सामने दाहिनी ओर जगरिया गणेश और ईश्वरिया बैठ गए हैं।
द दुंग… दुंग…दुंग द
दुंग…..दुंग…..दुंग !
बीच-बीच में बाजा बदलता:
दनकि….दनन….दनकि……दनन !
दनकि….दनन….दनकि…..दनन !
द दुंग….दुंग……दुंग द
दुंग…दुंग…..दुंग !
इसके साथ ही शंख बज उठा, “पू ऊ ऊ ऊ ह्” और फिर वही:
द दुंग….दुंग….दुंग द
दुंग….दुंग……दुंग !
लोहाखाम पुजारी जगरियों को चैंरीगाई की पूँछ से झाड़ कर आशीर्वाद दे रहे हैं….भलो है जालो तुमरो हे गुरू! सतगुरू आदेश ! आदेश !
द दुंग….दुंग….दुंग….दुंग…..दुंग !
डंगरिए मुट्ठी में अछेत (अक्षत) लेकर लोगों की ओर छिटक रहे हैं। किसी के माथे पर अछेत भरी हथेली टिका कर आशीष दे रहे हैं…. ‘‘भलोऽ है जालोऽ है शौकारो…इनऽ मोती का दाना, त्वै हनऽ दयालि है जालाऽकृआदेश! गोठ माई, पांड़ा माई, सबों कै भलऽ है जालो….आदेश! यककि यकासि है जालि, पाँचकि पचास है जालि….खाक चुटकिक लाखकरि द्यूँल….समगुरू आदेश!’’
एक और डंगरिया किसी और आदमी से….“अलख निरंजन! खाक का ओढ़ना, खाक का बिछौना…..ड्यौढ़ आसन भै म्यर……त्वै हन दयालि है जाल…..अखंड दीयाकि जागरिति त्वै हन दयालि है जालि…..आदेश! आदेश! आदेश!’’
अंगीठा धुधक रहा है। डंगरिए नाचते जा रहे हैं। चारों ओर, यहाँ तक कि मकानों की छत पर भी भारी भीड़ जमा है। भीड़ में अचानक किसी को औतार आता है। सारा आंग (शरीर) थर्राने लगता है। और, वह कमीज-स्वेटर उतार कर, धोती पहन कर धूनी में नाचने पहुँच जाता है। धुरमंडल (धूम) मच गई है। कुछ नए-नवेलों के आंग में भी नौताड़ (कंपकंपाहट) आ रहा है। डंगरिए उनके सिर पर हाथ या चैंरीगाईं की पूँछ रख कर उन्हें शांत कर रहे हैं।
भीड़ बीच-बीच में जयकारा लगा रही है….लोहाखाम देवता की जै! भगवती माता की जै! अब तक 17 डंगरिए नाच चुके हैं।
द दुंग दुंग दुंग
द दुंग दुंग दुंग!
‘पू ऊ ऊ ऊ ह’ शंख बज रहा है। कसासुरी थाल झन्न्ऽ झनझना रहा है। भ्वाँ करके पंचमुखी शंख बज उठा है। ताली की खिन-खिन के साथ ही घांट (घंटियां) टुन-टुना रही हैं। बीच-बीच में घंटे की टन्न-टन्न सुनाई दे जाती है। सभी वाद्यों ने हवा में एक सम्मोहक संगीत घोल दिया है।
द दुंग दुंग दुंग!
द दुंग दुंग दुंग!
डंगरिए नाचते जा रहे हैं। रात भर नाचेंगे।
रात का दूसरा पहर है। इधर अंगीठे के चारों ओर डंगरियों के नाचने की धुरमंडल मची हुई है तो उस पार आंगन से भ्वैनी गाने की आवाजें हवा में तैर कर आ रही हैं। वहाँ बाँहों में बाँह डाले सत्तर-अस्सी लोग गोल घेरे में, झूम-झूम कर भ्वैनी गा रहे हैंः
दानि शौकाऽ
दानिपुरै को दानि पीपल, बालिपाऽ
दानि शौका, हिंगोली का खामा सालि बालिपाऽ
दानि शौका, सबौं हन दयालि है जौ बालिपाऽ
लोपचुली-लोखाम साली बालिपा!….
हम कुछ देर सोने के लिए चले गए ताकि सुबह लोहाखाम मंदिर के लिए डोला उठते समय जातुरी में शामिल हो सकें। लेकिन, नींद किसे आनी थी ? अल्मोड़ा से आए हरीश बोरा और मैं तीन बजे झनमना कर उठे। बाहर हलका द्यौ (वर्षा) छिंटा रहा था। दिशा-शौच जाकर नहाने के लिए पानी टटोला लेकिन पानी था नहीं। टार्च की रोशनी में ऊपर पुश्तैनी धारे पर पहुँचे। मैंने हाथ-मुँह धोया। हरीश ने स्नान किया। उस ठंड में पहा़ड़ से निर्मल और गुनगुना पानी निकल रहा था। उस ब्राह्म मुहूर्त में नहाने का अलग ही आनंद था। तभी, एक-एक कर डंगरिए भी स्नान के लिए आने लगे। पुजारी हरीश चंद्र भी स्नान कर रहे थे। मंदिर के लिए प्रस्थान करने से पहले स्नान करना जरूरी था। स्नान करके हरीश बोरा ने कहा, “शायद भ्वैंनी गा रहे हैं बाखली में। आपकी रुचि की चीज है। चाहें तो आगे-आगे चलिए, मैं आता हूँ।’’
मैं तेज कदमों से बाखली में पहुँचा। लोग बारिश के छींटों में खड़े सुबह के कार्यक्रम का अनुमान जरूर लगा रहे थे कि कितनी देर में चलना ठीक रहेगा। मैं कमरे में जाकर पुजारी, पुरोहितों और जगरियों के पास जाकर बैठ गया। तभी छम्म से बारिश बरसने लगी। लोग ‘‘आब कि ह्वल, आब कि ह्वल’’ (अब क्या होगा) के अंदाज में एक-दूसरे को ताकने लगे।
एक आदमी भागता हुआ भीतर आया और पुजारी-पुरोहितों से पूछने लगा, ‘‘आब कि करला ?’’
मोतीराम पुरोहित बोले, ‘‘किलै, जो देवता कहेंगे!’’
“तो चलें फिर ? शुरू करें? ”
‘‘शांति रखिए। सबसे बड़ी बात है ‘ओम शांति’। थोड़ी देर रुकिए। देखें बारिश ने क्या सोच रखा है,’’ मोतीराम शांति से बोले।
कुछ देर बाद बाहर से जयकारा उठा, ‘‘लोपचुली-लोहाखाम देवता की जै! सच्चे दरबार की जै! पंचनाम देवों की जै!’’
वर्षा झमाझम बरसी और थोड़ी देर बाद चैड़ी गई (कम हो गई)। पुजारी जी ने जगरियों से कहा, ‘‘चलो, शुरू कर दो। हल्की वर्षा तो चलती रहेगी। इसी में निकल लेते हैं।’’
गणेश और ईश्वरी ने हाथ जोड़े और ढोल पर बाजा लगाया:
किड़ किड़ किड़ किड़ किड़
द धंग, द धंग!
द दुंग दुंग दुंग
द दुंग दुंग दुंग!
जगरिया गणेश जोर-शोर से बिनती कर रहा थाः
तबेत बाबा!
क्षीर सागर छैं
जै में बिश्नु अवतार छैं
जैकी नाभी में अमरित छ
नाभी नली बटी, पैद बनि गीं सुर्ज कमल
सुर्ज कमल में सतजुगी ब्रह्मा छैं….
डंगरिए नाचने लगे। बाहर बहुत हलकी वर्षा जारी थी। अचानक देखा, ऊपर ठींग के ऊँचे पहाड़ से पश्चिम में गलनी के धूरे तक आसमान में सुंदर सतरंगी इंद्रैंणी (इंद्रधनुष) खिंची हुई थी। अद्भुत दृश्य था। नीचे से घना सफेद हौल (कोहरा) तेजी से ऊपर उठता जा रहा था। लोहाखाम के पुजारी को कंधों पर बिठा कर मंदिर तक ले जाने के लिए सजी-धजी चैकी आ चुकी थी। उस पर लाल पटुवा ओढ़ा कर उसे रंगीन पन्नियों से सजाया गया था।
जगरियों के पीछे-पीछे नाचते हुए डंगरिया घर-भीतर से बाहर आए। शंख-घंट, कसासुरी थाल बजे। घंटियाँ टुनटुनाईं। पुजारी चैकी में बैठे और चार लोगों ने उन्हें चैकी सहित कंधों पर उठाया और नंगे पैर चल पड़े, तीनेक किलोमीटर दूर जंगल में लोहाखाम मंदिर की ओर।
पू ऊ ऊ ऊ ह
टन्न….टन्न……टन्न
झन्न….झन्न
द, डिंग डिंग डिंग
द, डिंग डिंग डिंग!
पीछे-पीछे डंगरिए और लोगों की लंबी कतार और उनका जयकारा….लोहाखाम देवता की जै! गुरु गोरखनाथ की जै! भगवती मइया की जै! गाँव की जागा (मंदिर) की परिक्रमा करके जातुरि के साथ डोला आगे बढ़ चला। ऊपर बाँज-बुरोंज का जंगल पार करके धूरा की धार में, वहाँ से पल्वाक-पानि पार कर लोहाखाम मंदिर तक। बीच-बीच में वर्षा की छमक आती जा रही थी। डोला लोहाखाम मंदिर की धार में पहुँचा तो वर्षा की हलकी फुहारों के साथ तेज हवा बह रही थी। सुबह की बेला में वह सांय-सांय का नैसर्गिक संगीत सम्मोहित कर रहा था। ग्राम देवता के जयकारे के साथ चैकी लोहाखाम मंदिर के चबूतरे पर उतार दी गई। पुजारी और पुरोहित चबूतरे पर बैठ कर पूजा अनुष्ठान करने लगे। लोग आते, पैसों की भेंट चढ़ाते या पाठ पढ़वाते। मंदिर के सामने मैदान में और ऊँची धार पर लोग जमा होते गए।
हुड़का, मशकबीन की धुनों के साथ गाते-बजाते, नाचते लोग आते रहे। वे मंदिर की परिक्रमा करके मैदान में आ जाते। चबूतरे के सामने छपेली के शौकीनों ने दो-तीन मशकबीनों, हुड़कों, ताली और बाँसुरी की धुन पर गीत के ‘जोड़’ लगा-लगा कर टेक पर नाचना शुरू कर दिया:
गोबिंदी घास काटैंछी औंस बेडुली
पुल बादेंछी कम
गोबिंदी त्यारा मैत को जोगि यै रौछ
चिमटा छमाछम!
(गोविंदी ओंस-बेडुली घास काटती है/पूले बांँधती है कम/गोविंदी तेरे मायके का जोगी आया है/चिमटा छमाछम!)
और,
यह भीरू
माया नसि गै, मोटर में भै बेर
देबुवाऽ किकरछै, र्वे बेर!
(माया तो मोटर में बैठ कर चली गई है, देबुवा क्या करता है रोकर)
बीच मैदान में, रात भर गाकर भी न थके गौंन्यारौ के नारायन सिंह भ्वैनी की चाल में चलते, झूमते, गाते लोगों से भ्वैंनी शुरू करने के लिए कह रहे थे। गा-गा कर सुना रहे थे- ‘हो क्या गया है तुम लोगों को ? थक गए क्या ? बुशी गए हो क्या? तो आते क्यों नहीं भ्वैंनी गाने के लिए?’’ आओ ना, आओ ना’ कहते हुए मुझसे भी कहा, “आओ शाब, भ्वैंनी गाते हैं।’’ मैं बोला, ‘‘चलो शाब” और नारायन सिंह की बाँह पकड़ कर, उनके सुर में सुर मिलाया:
बाँज नैं काट बाँज लछिमा
बाँज नैं काट बांज
कासा हैगीं हाल लछिमा,
बाँज नैं काट बाँज!
एक-एक, दो-दो करके लोग जुड़ते गए और धीरे-धीरे 60-70 लोगों का घेरा बन गया। नारायन सिंह गीत को आगे बढ़ाते गए और जम गई भ्वैंनी। फिर तो एक के बाद एक भ्वैंनी गाई जाती रहीं। लोग ऐसा रम गए कि कोई छोड़ने को तैयार नहीं।
उधर कछ लोग चूल्हों पर खाना बनाते जा रहे थे। कई लोग पूडि़याँ तल रहे थे तो कुछ लोग आटा गूँधने में व्यस्त थे। कुछ बड़े-बड़े कड़ाहों में हलुवा घोट रहे थे। दो-तीन बड़े-बड़े चूल्हों पर भारी-भरकम देगों में आलू की सब्जी पक रही थी। पूरा भोजन शाकाहारी था।
धार में आसपास से बकरों के मिमियाने की आवाजें आने लगी थीं। लोग दूर-दूर से बलि के लिए बकरे लेकर चले आ रहे थे। वहाँ लाकर उन्हें किसी पेड़-पौधे के सहारे रस्सी से बांध देते और परिणाम से अनजान बकरे आसपास की घास-पत्तियाँ चरने लगते। एक-दो, एक-दो करके बलि के बकरों की संख्या बढ़ती जा रही थी। तभी, एक आदमी ने हाथ में पकड़े भौंपू से खाने की घोषणा की, ‘‘सुनिए, हम अपने अतिथियों को बताना चाहते हैं कि भोजन तैयार है। बलि का कार्यक्रम चल रहा है। पूरा होते ही हम खाना खिलाना शुरू कर देंगे।’’
शायद बलि का कार्यक्रम पूरा हो चुका था। उस ओर जाने की हिम्मत नहीं हुई। अब कहीं से भी ‘मेंऽ मेंऽ की आवाज नहीं आ रही थी। फिर घोषणा हुई, ‘‘सबसे पहले स्त्रियों, बालिकाओं और बच्चों से प्रार्थना है कि वे मैदान में आकर कतारों में बैठ जाएं। इसके बाद हम दो-दो, तीन-तीन ग्राम सभाओं के हिसाब से अपने अतिथियों को बुलाएंगे। ग्रामसभा कालाआगर, क्वेराला- कालाआगर और ककोड़ के हम सभी मेजबान लोग सबसे अंत में खाना खाएंगे। सभी ध्यान रखें कि मेहमानों को कोई तकलीफ न हो। सभी सहयोग दें।’’
महिलाओं और बच्चों की भारी भीड़ को खाना खिलाने के बाद ग्रामसभा चमूली, बड़ौन, गलनी, गरगड़ी आदि तमाम ग्रामसभाओं से आए हुए अतिथियों को खाना परोसा गया। हम लोगों ने अंत में खाना खाया। एक-डेढ़ घंटे में अनुशासन के साथ हजारों लोगों को खाना खिला दिया गया। खाना खाकर लोग गाँव की ओर वापस लौटने लगे। भौंपू पर घोषणा करके उन्हें अगले दिन बाखली में सिर-खुरी के भोज में जरूर शामिल होने का न्योंता दिया गया।
‘सिर-खुरी’ यानी ‘सिर’ और ‘खुर’। ‘खुर’ मतलब ‘सापड़ी’ (टांग)। मंदिर में शाकाहारी भोज और अगले दिन बाखली में मांसाहार ? समझ में नहीं आया। जानकारों से पूछा तो उन्होंने बताया, “नैं, नैं, लोहाखाम देवता का तो बकरों की बलि से कुछ लेना-देना ही नहीं हुआ। उनसे तो ओट (परदा) करके बकरों की बलि दी जाती है।’’
“ओट करके क्यों?”
“क्यों उनको दिखाई न दे करके, और क्यों ? उनको तो यह चढ़ाया नहीं जाता।”
“अरे, तो फिर बकरे चढ़ाए किसे जाते हैं? ” मैंने बैचेन होकर पूछा।
“देवता के गणों को। उन्हें भी तो खुश करना हुआ! है कि नहीं? ”
“नहीं, ये गण तो फिर आदमी ही हुए। गणों की क्या, सच बात तो यह है कि आदमियों की ही जीभ मांगती होगी बकरा।”
“ऐसा ही समझ लें। अब, पुराना रिवाज ठैरा क्या कहा जाए,’’ उन्होंने कहा।
बहुत खूब वर्णन । जिस ध्वन्यात्मक लहजे में आप अपनी लेखनी का प्रयोग करते हैं उससे पाठक के मस्तिष्क में शब्दों और वाक्यों के साथ वो ध्वनियां भी गुंजायमान होती हैं ।