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    उत्तराखंड:मेरी व्यथा

    एक अरसे से
    बस सीमाओं को
    सहेजते थे हम
    कि अचानक
    संसाधनों में अपना अंश
    पहचानने की ललक उठी
    और हमने
    इसकी आवाज क्या उठायी
    कि उन्होंने
    धरती पर लकीर खींचकर
    ऐलान कर दिया बंटवारे का
    कि इस पार की
    उबड खाबड धरती ही
    अब तुम्हारा अंश है
    और तुम्हें अपनी तकदीर
    इन्हीं कन्दराओं में लिखनी है
    साथ ही संवारना है
    देश का भाल
    हम उस लकीर के फकीर
    अब सहेज रहे है
    बहती मिट्टी को,
    दरकती पहाडियों को,
    सुलगते रिश्तों को,
    विद्रोही स्वरों को
    और हवा की मिठास को
    साथ ही निबट रहे हैं
    सीमाओं पर बढते जा रहे
    आस्तीन के सॉपों से
    ताकि
    मैदान का पानी खारा न हो
    रिश्तों की ऑच मध्यम न हो
    और जीवन दायिनी हवा
    और ज्यादा जहरीली न हो।

    -अशोक कुमार शुक्ला

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    1. avatar
      हरकीरत ' हीर' said... February 17, 2012 at 9:21 AM |

      हम उस लकीर के फकीर
      अब सहेज रहे है
      बहती मिट्टी को,
      दरकती पहाडियों को,
      सुलगते रिश्तों को,
      विद्रोही स्वरों को
      और हवा की मिठास को
      साथ ही निबट रहे हैं
      सीमाओं पर बढते जा रहे
      आस्तीन के सॉपों से
      ताकि
      मैदान का पानी खारा न हो
      रिश्तों की ऑच मध्यम न हो
      और जीवन दायिनी हवा
      और ज्यादा जहरीली न हो।

      क्या बात है अशोक जी कमाल की पंक्तियाँ हैं ….
      बहुत खूब …..

      Reply
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    Manoj Khansali (aNVESH) November 10, 2017 at 2:10 PM |

    Bahut hi umda,…wah kya baat hai

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