उत्तराखंड राज्य बने 11 वर्ष पूरे हो गये। जो प्रदेश जनता द्वारा सुदीर्घ आन्दोलन और दर्जनों प्राण न्यौछावर कर प्राप्त किया गया हो, उसके स्थापना दिवस पर वैसा ही उत्साह दिखाई देना चाहिये था, जैसा दीवाली या ईद जैसे त्यौहारों पर होता है। लेकिन आम जनता द्वारा इस महत्वपूर्ण दिन की पूरी तरह उपेक्षा करना ही साबित कर देता है कि उसे इस राज्य से अब कोई आशा नहीं रह गई है। शासक दल के और सरकारी कार्यक्रमों की रंगत हरिद्वार हादसे ने पहले ही उड़ा दी।
फिलहाल सभी राजनैतिक दलों की गतिविधियाँ आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रख कर ही चल रही हैं। जाहिर है कि सत्तारूढ़ दल लोक लुभावन घोषणायें कर वोटरों को मोहने की कोशिश कर रहा है और विपक्षी दल सत्ताधारियों को असफल साबित करने की। खंडूरी सरकार ने लोकायुक्त विधेयक पारित कर फिलहाल एक पहल तो ली है, लेकिन उससे भाजपा द्वारा अब तक किये गये सारे पाप धुल जायेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। चिन्ताजनक यह है कि इस चुनावी शोरगुल में उत्तराखंड के तमाम मूल मुद्दे लापता हो गये हैं। गैरसैंण राजधानी की बात तो अब बढ़ चढ़ कर डींगे हाँकने वाला मीडिया भी नहीं उठाता। न ही दूरस्थ गाँवों में जानवरों द्वारा उजाड़ दी जा रही कृषि, चौपट हो रही स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था तथा परिणामस्वरूप वहाँ से तेजी से हो रहे पलायन के बारे में कोई आवाज उठ रही है। पहाड़ अपने वर्तमान रूप में भी बचा न रह सका तो इस राज्य बनने का मतलब ही क्या रहा ?
उत्तराखंड:मेरी व्यथा
एक अरसे से
बस सीमाओं को
सहेजते थे हम
कि अचानक
संसाधनों में अपना अंश
पहचानने की ललक उठी
और हमने
इसकी आवाज क्या उठायी
कि उन्होंने
धरती पर लकीर खींचकर
ऐलान कर दिया बंटवारे का
कि इस पार की
उबड खाबड धरती ही
अब तुम्हारा अंश है
और तुम्हें अपनी तकदीर
इन्हीं कन्दराओं में लिखनी है
साथ ही संवारना है
देश का भाल
हम उस लकीर के फकीर
अब सहेज रहे है
बहती मिट्टी को,
दरकती पहाडियों को,
सुलगते रिश्तों को,
विद्रोही स्वरों को
और हवा की मिठास को
साथ ही निबट रहे हैं
सीमाओं पर बढते जा रहे
आस्तीन के सॉपों से
ताकि
मैदान का पानी खारा न हो
रिश्तों की ऑच मध्यम न हो
और जीवन दायिनी हवा
और ज्यादा जहरीली न हो।
-अशोक कुमार शुक्ला
हम उस लकीर के फकीर
अब सहेज रहे है
बहती मिट्टी को,
दरकती पहाडियों को,
सुलगते रिश्तों को,
विद्रोही स्वरों को
और हवा की मिठास को
साथ ही निबट रहे हैं
सीमाओं पर बढते जा रहे
आस्तीन के सॉपों से
ताकि
मैदान का पानी खारा न हो
रिश्तों की ऑच मध्यम न हो
और जीवन दायिनी हवा
और ज्यादा जहरीली न हो।
क्या बात है अशोक जी कमाल की पंक्तियाँ हैं ….
बहुत खूब …..
Bahut hi umda,…wah kya baat hai