पुलिस कर्मियों का विरोध ..

uttarakhand-policeउत्तराखण्ड पुलिस के कांस्टेबल और अन्य कर्मियों ने पिछले दिनों अपनी वेतन विसंगति के खिलाफ बाँहों पर काली पट्टी बाँध कर विरोध प्रदर्शित करने का जो रास्ता अख्तियार किया, उससे उसकी मनोदशा प्रकट होती है। तात्कालिक रूप से उनके असंतोष को भले ही शान्त कर दिया गया हो, लेकिन यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह गुस्सा दुबारा नहीं फूटेगा।

यह मानना कि सिर्फ वेतन विसंगति को दुरुस्त करवाने के लिए पुलिस जैसी एक विशेष प्रकार की ट्रेनिंग वाली फोर्स में लोग अपनी नौकरी दाँव पर लगायेंगे, पुलिस के निचले स्तरों पर तैनात कर्मियों के भीतर खदबदाते गुस्से को कमतर प्रदर्शित करने की कोशिश है। जिस फोर्स की ट्रेनिंग और काम ही, बिना किसी की माँगों के तर्कों और तथ्यों को समझे बगैर ही, सिर्फ आन्दोलनों का दमन करना हो, वह अपनी माँगों के लिए उसी आन्दोलनकारी जमात में शामिल हो जाये, यह सामान्य बात नहीं है। इसका मतलब है कि विपरीत और लगभग अमानवीय स्थितियों में काम करते हुए पुलिसकर्मियों का धैर्य लगभग चुक गया है। ट्रेनिंग के दौरान नशे की तरह इंजेक्ट की गयी अनुशासन की घुट्टी उन्हें बाँधे रखने में नाकाम साबित हुई है।

उत्तराखंड छोटा प्रदेश है। यहाँ हर आडू- बेडू- घिंगारू भी किसी न किसी मंत्री या विधायक का आदमी है। इसलिए ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने से किसी को रोक नहीं सकते, अपराध करते हुए किसी को पकड़ नहीं सकते और ड्यूटी चौबीसों घंटे बजानी है। उसके अलावा मेला ड्यूटी, मंत्रियों, अफसरों की ड्यूटी और न जाने क्या-क्या ? जिन अनपढ़, नाकारा किस्म के लोगों को चींटी के काटने का खतरा तक नहीं, उनकी सत्ता से निकटता होने मात्र के चलते उनके पीछे-पीछे बन्दूक उठा कर घूमो। भ्रष्टाचारियों को भ्रष्टाचार करते हुए देखो, लेकिन चूँकि वे सत्ता में हैं, इसलिए रोज उनको सलाम ठोको। उस पर कोढ़ में खाज ये कि बाकी सबको वर्षों से छठे वेतन आयोग के अनुरूप वेतन मिल रहा है और यहाँ कोई पूछने वाला नहीं ! ऐसे में पुलिसकर्मियों का धैर्य चुकेगा नहीं तो क्या होगा ? पुराने समय में फौज हो या पुलिस, उनमें अफसर अभिजात तबके के होने के चलते पढ़े-लिखे होते थे और निचले पदों पर काम करने वाले गरीब और लगभग अनपढ़। आज अफसर जितना शिक्षित है, उतना ही शिक्षित सिपाही भी है। जाहिर सी बात है कि अफसरों के बराबर ही पढ़े-लिखे होने के चलते सिपाहियों में तो बराबरी और स्वाभिमान का भाव जागृत हुआ है। लेकिन अफसरों की हेकड़ी अभी भी सिपाहियों को अंग्रेजी राज की मानसकिता के साथ देखती है। नतीजे के तौर पर फौज से लेकर पुलिस तक, सभी जगह निचले पदों पर काम करने वालों में भारी असंतोष है। कहीं यह प्रकट हो जा रहा है और कहीं विस्फोट करने के मुहाने पर है।

उत्तराखंड पुलिस में शिकायतों के निवारण का कोई विश्वसनीय तंत्र ही नहीं है। निचले पदों पर काम करने वाले लोगों को यूनियन बनाने का अधिकार भी नहीं है। अंग्रेजों के काल में पुलिस-फौज का आवाज उठाना राजद्रोह था। पर जब राज ही नहीं रह गया तो राजद्रोह की धारा ही कानून में क्यों है ? जब लोकतन्त्र में सबको अपनी बात कहने का हक है तो पुलिस-फौज को क्यों नहीं है ? भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 संगठन बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित करता है तो फिर पुलिस-फौज में संगठन बनाना अपराध कैसे है ?

जब उच्च पदों पर आसीन होने के बावजूद आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अफसरों की एसोसिएशन हो सकती है तो सामान्य पदों पर कार्यरत पुलिसकर्मियों को यूनियन बनाने का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए ? उत्तराखंड में पी.सी.एस. अफसरों के तो दो तरह के संगठन हैं। एक संगठन उनका है, जो सीधे लोक सेवा आयोग से चुनकर आये हैं तो दूसरा उनका है जो छोटा राज्य होने के प्रसादस्वरूप, नायब तहसीलदार भर्ती होकर पी.सी.एस. हो गए हैं। पी.सी.एस. के इन दो संगठनों के बीच चल रही उठापटक, शह-मात का खेल किसी अनुशासनहीनता के दायरे में नहीं आता, तो पुलिस के छोटे कर्मचारियों को अपनी बात कहने का अधिकार क्यों नहीं ?

जब छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुई ही थीं, तब आई.ए.एस. और आई.पी.एस. संवर्गों के बीच के वेतन में अंतर का विरोध करते हुए उत्तराखंड में तैनात आई.पी.एस. अफसर अभिनव कुमार ने अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लेख तक लिखा था। लेकिन अभिनव कुमार के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हुई थी। अभिनव कुमार पर तो तब भी कोई कार्यवाही नहीं हुई जब उन्होंने उस समय के मुख्यमंत्री द्वारा तत्कालीन पौड़ी रेंज के डी.आई.जी. के तौर पर ट्रान्सफर किये जाने पर पौड़ी जाने से साफ इंकार कर दिया था। जब सरकार की नीति की अखबार में आलोचना करने या मुख्यमंत्री के आदेश की अवहेलना करना अनुशासनहीनता नहीं है तो जायज वेतन भत्ते माँगना कैसे अनुशासनहीनता हो सकता है ?

यह भी विचित्र है कि जिस बी.एस.सिद्धू पर सरकारी जमीन कब्जाने और पेड़ काटने के पुष्ट आरोप हों, वह अनुशासित हो और कठिन तथा अमानवीय परिस्थितियों में भी अपना कर्तव्य निभाने वाले छोटे पुलिसकर्मी अनुशासनहीन! पुलिस की ट्रेनिंग उसमें काम करने वालों को अमानवीय और जनविरोधी बनाती है, इसके बावजूद वे मनुष्य हैं। अपने हक के लिए उनका आवाज उठाने का साहस एक उम्मीद जगाता है।

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