साहित्य अकादेमी ने पहली बार कुमाउनी की सुध लेते हुए दो वरिष्ठ साहित्यकारों, चारु चन्द्र पाण्डे और मथुरादत्त मठपाल को ‘भाषा सम्मान’ के लिये चुना। दोनों को एक लाख का पुरस्कार संयुक्त रूप से देने की घोषणा की गई। यह थोड़ा विचित्र था कि सम्मान समारोह का आयोजन सुदूर दक्षिण भारत में, कोयम्बटूर में किया गया। स्वास्थ्य संबंधी कारणों से 93 वर्षीय पाण्डे जी समारोह में शामिल ही न हो सके।
16 अगस्त को कोयम्बटूर के भारतीय विद्या भवन के सभागार में कुमाउनी के स्वर गूंजे। मृदुभाषी मथुरादत्त मठपाल ने साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष व प्रतिष्ठित तमिल कवि सिरपी बालसुब्रमण्यम के हाथों प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह तथा नकद पुरस्कार ग्रहण करते ‘‘द्वि आँखर- कुमाउनीक् बाबत’’ शीर्षक के अपने सम्बोधन में कुमाउनी संस्कृति और भाषा के महत्व को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। अपने धन्यवाद भाषण में ‘‘आयोजन में भागीदारी करनेर जागन श्रोतागण, सबन जाँलै म्यरि पैलाग’’ कहा तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। अपने संबोधन का समापन भी उन्होंने पारम्परिक कुमाउनी आशीष देते हुए ‘‘जी रया, जागि रया, स्यूँ कस तराण हौ, स्यावै कसि बुद्धि हौ,’’ के साथ किया।
अपने संबोधन में मठपाल जी ने बताया कि कुमाउनी-गढ़वाली में मातृभाषा के लिए ‘दुधबोली’, अर्थात् वह बोली जो माँ के दूध के साथ मिलती है, प्रयुक्त किया जाता है। उन्होंने बताया कि कुमाउनी के पास अकूत शब्द भंडार है, लोकोक्ति और मुहावरे हैं, हजारों ध्वन्यात्मक शब्द हैं। इस थाती का एक बड़ा भाग धर्म से जुड़ा हुआ है तो श्रम के साथ भी।
साहित्य अकादमी भाषा सम्मान पुरस्कार मिलने के बाद वापस उनके गृहनगर, रामनगर आगमन पर मथुरादत्त मठपाल जी का विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की ओर से नागरिक अभिनंदन किया गया। प्रगतिशील सांस्कृतिक समिति पैंठ पड़ाव के सभागार में गणेश रावत के संचालन में सम्पन्न अभिनंदन समारोह में वक्ताओं ने श्री मठपाल के रचनाकर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मठपाल की रचनाओं पर शोध कर रहे कृष्ण चंद्र मिश्र ने उनका जीवन परिचय व उनके द्वारा कोयम्बटूर में कुमाउंनी में दिया गया भाषण सुनाया। इस दौरान उपस्थित लोगों ने श्री मठपाल को दुशाला ओढ़ाकर तथा माल्यार्पण करके सम्मानित किया।