वर्ष 40:अंक 24 II 1- 15 अगस्त 2017
हमारी शिक्षा व्यवस्था: एक अध्यापक के अनुभव, प्रयोग और संकल्पनायें (2)
तारा चन्द्र त्रिपाठी सुबह उठता हूँ तो देखता हूँ कि तीन वर्ष के बच्चे की पीठ पर दो किलो का बस्ता लादे, उसकी माँ उसे स्कूल पहुँचा रही है। शाम को दिखाई देता है कि माँ ही उसका सारा गृह कार्य कर रही है। कुछ देर में एक अभिभावक आते हैं। वार्षिक परीक्षा में अपने […]
हमारी शिक्षा व्यवस्था: एक अध्यापक के अनुभव, प्रयोग और संकल्पनाएँ ( 1)
ताराचन्द्र त्रिपाठी अपने को, अपने अध्यापकों को देखतेे-देखते अर्द्धशती बीत गयी. आज भी स्मृतियों में अनेक अध्यापक विराजमान हैं. जूनियर हाईस्कूल धनियाकोट के अध्यापक श्री नन्दकिशोर जी घुटने के कैंसरजन्य मारक दर्द से परेशान रहने के बावजूद कभी शिक्षण से विमुख हुए हों, मुझे याद नहीं है. गणित के अध्यापक केवलानन्द जी, कक्षा में कभी […]
नाम बदल कर निष्कलंक होने की चाहत
ताराचंद्र त्रिपाठी [{इन दिनों चोरगलिया का नाम नरेन्द्रनगर करने के लिये एक बड़ा आन्दोलन चल रहा है। जब करने के लिये कोई बड़ा लक्ष्य न हो, वक्त काफी हो तो ऐसी ही खुराफातें सूझती हैं। हो सकता है कि चोरगलिया का इलाका पर्याप्त सम्पन्न और स्वावलम्बी हो गया हो, वहाँ किसी तरह का भ्रष्टाचार न […]
हमने भी सस्ता जमाना देखा था….
1. तब फोन करने के लिए भी तारघर जाना पड़ता था। एक शहर से दूसरे शहर में रहने वाले मित्र को फोन मिलाने के लिए फोन ऑपरेटर की बार-बार चिरौरी करनी पड़ती थी और उसकी कृपा होने पर ही बात हो पाती थी। इसमें भी कई बार फोन मिलने की प्रतीक्षा में पूरा दिन तारघर […]
21वीं सदी की वर्ण व्यवस्था
मनु एक मिथक है। मनु की सन्तान होने के कारण मानव और दनु की सन्तान को दानव कहा गया। स्मृतियाँ तो बहुत बाद में बनीं, सम्भवतः गुप्त पुनर्जागरण के बाद। किसी शास्त्रकार ने अपने ग्रन्थ का नाम मनु से जोड़ा तो किसी ने याज्ञवल्क्य से तो किसी ने पाराशर से– ताकि सीधी सादी जनता से […]
इतिहास मेरी नजर में
मानव इतिहास विश्व के सबसे कमजोर और प्राकृतिक रूप से सर्वाधिक साधनहीन प्राणी के सर्वाधिक शक्तिशाली हो कर उभरने की गाथा है। वह प्राणी जो किसी हिंसक जन्तु से अपनी रक्षा के लिए न तो तेज दौड़ सकता है न काया का रंग बदल सकता है, न तीव्र गंध छोड़ सकता है, शीत से बचाव […]
बोली ही किसी समुदाय की पहचान है
कभी-कभी जब मैं पेट की भाषाओं के दबाव तले दम तोड़ती भाषाओं के बारे में विचार करता हूँ तो मुझे निश्वास लग जाता है। मुझे लगता है कि जिस प्रकार हम सब अपनी बोलियों की उपेक्षा कर रहे हैं, हमारी बोलियाँ भी अगले बीस-पचीस साल में विश्व की अब तक दम तोड़ चुकी उन सैकड़ों […]
पहले घर की भाषा तो बने कुमाउनी !
दिनांक 5 से 7 नवंबर 2011 तक ’पहरू’ के संपादक हयातसिंह रावत और उत्तराखंड भाषा संस्थान के सहयोग से अल्मोड़ा में आयोजित गोष्ठी में प्रथम दिन विद्वानों के विचारों को सुनने का अवसर मिला। यह जान कर बड़ा दुख हुआ कि इन प्रतिष्ठित विद्वानों को कुमाउनी-गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची और […]
खजूरी बीट में बीते बचपन के वे दिन – 2
[ पिछ्ले भाग में आपने पढ़ा कि किस प्रकार खजूरी बीट के लोग प्रकृति को पूज्य मानते थे और हर प्राकृतिक चीज में उन्हें देवता का निवास प्रतीत होता था…आज उससे आगे] आज की तरह घर-घर रावण, घर-घर लंका वाला युग नहीं था। लोग अपनी जरूरत भर की चीजें ही प्रकृति से लेते थे। बेच […]
खजूरी बीट में बीते बचपन के वे दिन – 1
अल्मोड़ा जनपद में मजखाली और सोमेश्वर के बीच लगभग सात हजार फीट ऊँची पर्वत श्रेणी एड़द्यो कहलाती है। इस पर्वत पर सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित जंगल वन विभाग के अभिलेखों में खजूरी बीट के नाम से अभिलिखित है। यह मनाण के समीप बमणिगाड़ से आरंभ होकर एड़द्यो के सर्वोच्च शिखर तक और पश्चिम में कैड़ा […]
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