टैंट के अंदर सुबह की धुँधली रोशनी फूटी तो बाहर निकल आया। नीचे, सड़क के उस पार फौजी जवान अपने कामों में व्यस्त थे। कुछ घंटों के बाद कँपकपाता हुआ सूरज भी निकल आया। ठंड से हमारी गाड़ी जकड़ गई थी। बोनेट खोल कर, उसमें गर्म पानी डाल उसे धूप के दर्शन कराए। बमुश्किल वह आगे चलने को राजी हुई।
टैंट (साजन होटल) की मालकिन आमा, रिरिंग अंगमो चाय बनाने लगीं, तो हमारे मित्र चाय के लिए मना कर उनकी रसोई में कॉफ़ी बनाने लगे। आमा तीस वर्षों से पांग में दुकान चला रही हैं। अक्टूबर में बर्फ गिरने से सड़कें बंद हो जाने के बाद वे लेह में अपने गाँव चली जाती हैं और मई में रोड खुलने पर पर्यटकों की आवाजाही शुरू होने पर फिर से पांग में अपने तंबू तान लेती हैं। लेकिन ऊँचाई काफी होने के कारण पांग में पर्यटक कम ही ठहरते हैं। आमा हम लोगों के नाश्ते के लिये रोटी बनाने को हुईं। इतनी ऊँचाई पर भूख नहीं लग रही थी। कॉफ़ी पीकर ही हमने आगे की राह ली। सड़क हमें और ऊँचाई को ले गई। 21 किमी आगे चलकर 4,730 मीटर पर स्थित मोरे प्लेन्स पहुँचे तो एकाएक नजरों के सामने आ पड़े पठारों का विस्तार देख हतप्रभ रह गए। मीलों तक फैले पठार में सीधी सड़क का ओर-छोर नहीं दिखाई दे रहा था। काफी दूरी पर याकों का एक बेफिक्र झुंड मुलायम बुग्याली घास चर रहा था। बायीं ओर से हजारों भेड़ों को हाँकता हुआ एक चरवाहा धीरे-धीरे ऊपर की ओर चला आ रहा था। यह सब अपलक देखते रह गए। दीपक अपना उल्लास रोक नहीं सका और विस्तृत मैदान में अठखेलियाँ करते हुए दौड़ने लगा।
20 किमी आगे डिबरिंग (4,835 मी.) में कुछ तंबू और दो पथरीली दुकानें दिखाई दीं। नाश्ते के लिए एक तंबू के अंदर हो लिए। पराठे स्वादिष्ट थे। पराठा सेंकती महिला ने बताया कि ज्यादातर दुकानदार चले गए हैं। अगले हफ्ते तक बाकी भी अपने गाँव चले जाएँगे। कुछ आगे धुगछे से उनके गाँव न्यूमा तक एक रोड जाती है। डिबरिंग में पानी का एक हैंडपम्प दिखा। 19 किमी. और आगे तांगलांग पास (5,328 मी.) से आगे ढलान वाली सर्पीली सड़क दिखी तो मैं एक बार फिर से पैदल चलने का मोह नहीं छोड़ सका। इस बार आंनद खाती भी मेरे साथ हो लिए। ढलान में संभलते हुए हम कई किमी. उतरे होंगे। तांगलांग से 29 किमी. पर रूमस्ते (4,260 मी.) और वहाँ से 31 किमी और आगे उपसी (3,480 मी.) है। उपसी में सिन्धु नदी से पहले कस्टम का चैक पोस्ट है। उपसी से लेह 51 किमी है।
ग्यारह हजार फीट की ऊँचाई पर बसे लेह शहर पहुँचने तक अंधेरा गहराने लगा था। मुख्य बाजार में एक बौद्ध भिक्षु से रहने के लिये किसी शांत व सुविधाजनक ठिकाने के बारे में पूछा तो वे हमें एक पेइंग गैस्ट हाऊस तक पहुँचा गए। गैस्ट हाऊस चलाने वाले एम.एस. खान दिल्ली से थे। वर्ष 1999 से लेह में वे इस गैस्ट हाऊस से अपनी आजीविका चला रहे थे। 1974 से पहले बाहरी लोगों के लिए लद्दाख जाना प्रतिबंधित था। बाद में इसे कुछ शर्तों के साथ खोल दिया गया। यहाँ से पैंगोंग झील सहित खारदुंगला पास आदि जगहों पर जाने के लिए परमिट बनाना जरूरी होता है। परमिट का काम ट्रैवल्स एजेंसियाँ तथा गैस्ट हा़ऊस वाले कर देते हैं।
लेह की बाजार भी चीन के सामान से पटी थी। तिब्बत की पहचान कुछ आलीशान दुकानों में सीसों के पीछे सकुचाई सी थी। वैसे लेह में लद्दाखी संस्कृति और परंपरा से जुड़ी कई चीजें खरीदी जा सकती हैं। पश्मीना शॉल सबसे लोकप्रिय है। ये बेहद नर्म और गर्म होते हैं। तिब्बती कारीगरों के गलीचे, लकड़ी का सामान व अन्य अनेक वस्तुएँ भी मिल जाती हैं। यहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्यतः व्यापार पर ही निर्भर दिखी। बाद में पता चला कि फलोत्पादन के साथ खेती भी यहाँ महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि हमें तो खेती कम ही दिखी। हाँ, सेव जरूर अपने गेस्ट हाऊस में दिखे।
सुबह मैं और योगेश जल्दी उठ गए थे। साथियों को उठाया तो वे अलसाये पड़े रहे। लिहाजा उन्हें सोता छोड़ हम दोनों लद्दाखी राजाओं के पुराना महल को देखने को चल पड़े। संकरी, नीम अंधेरी गलियों से गुजरते हुए हम महल के सामने पहुँचे तो उनकी ऊँचाई और भव्यता को देखते ही रह गए। महल का दरवाजा खुला था, मगर वहीं पास में एक टिकट का काउंटर भी था। मगर बंद। अंदर जाने में दुविधा हो रही थी कि बिना टिकट जाने पर कहीं कोई टोक न दे। सामने से आते एक भिक्षु से अपनी शंका व्यक्त की तो वे हमें अंदर तक छोड़ गए कि टिकट घर तो खुलता रहेगा, आप लोग घूम लो। निचली दो मंजिलों में कई कमरे बंद पड़े थे। सीढि़यों से ऊपर चढ़े। छन-छन कर आती धुँधली सी रोशनी रहस्यमय लग रही थी। तीसरी व चौथी मंजिल में कई सारे कमरे खुले थे। दलाई लामाओं के इतिहास से संबंधित छायाचित्रों के साथ शांति का संदेश देते बौद्ध धर्म के कई वृत्तचित्र वहाँ थे।
एक पहाड़ की चोटी पर बना यह महल तिब्बत में ल्हासा के प्रसिद्ध पोटाला महल का ही प्रतिरूप है। तिब्बती कारीगरी के बेहतरीन नमूने के इस नौमंजिले महल को राजा सिंग्मे नामग्याल ने 17वीं शताब्दी में बनवाया था। ऊपरी मंजिलों में शाही परिवार का निवास था और नीचे भंडार तथा अस्तबल। डोगरा सेनाओं ने 19वीं सदी में जब लद्दाख पर कब्जा किया था, तब शाही परिवार को महल छोड़ कर स्टोक पैलेस जाना पड़ा था। अब इस महल की देखरेख पुरातत्व विभाग द्वारा की जा रही है। इस महल से जुड़े कई मंदिर भी हैं, जो पुजारियों द्वारा सुबह-शाम पूजा के लिए ही खोले जाते हैं।
महल के झरोखों से बाहर विस्तृत हिमश्रृंखलाओं के बीच, ऊँचे हरे पेड़ों से घिरा लेह शहर अद्भुत लग रहा था। इस अलौकिक दृश्य को हृदय में उतारते हुए हम काफी देर तक इंतजार करते रहे कि कोई व्यक्ति आए तो उससे कुछ जानकारी प्राप्त करें। कोई नहीं आया तो हम बाहर निकल आए। पास ही कुछ ऊँचाई पर कसल तसेमो मठ था तो वहीं को चल पड़े। हजारों पवित्र पताकाओं के बीच यह मठ भी निर्जन ही था।
परमिट की वजह से हमें एक और रोज लेह में रुकना था। शाम तक हम लेह की सारी गलियाँ नाप चुके थे। सैकड़ों बौद्ध मठों में हजारों बौद्ध भिक्षुओं की प्रार्थनाओं से गुलजार रहने वाले लेह की दुनिया ही अलग है। औरंगजेब के शासनकाल में, 1666-67 ई. में देलदन नामग्याल द्वारा अपनी माँ की याद में बनवायी गई ऐतिहासिक जामा मस्जिद लद्दाख में बौद्ध और इस्लाम धर्मों के शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की मिसाल है।
लद्दाख तिब्बत के एक भाग को छीन कर बसाया गया लगता है। उत्तर में कराकोरम और दक्षिण में हिमालय के बीच के हिस्से में फैला यह देश का सबसे ठंडा और सबसे सूखा क्षेत्र है। यहाँ से कारगिल तक फैले सैकड़ों मठों में हरेक का अपना एक इतिहास है। कुछ नजदीकी मठों में हम घूम भी आए। यहाँ से 5 किमी दूर चंगस्पा गाँव में स्थित, सफेद पत्थर से निर्मित शांति स्तूप को लेह के बेहतरीन स्मारकों में से एक है। इसकी स्थापना सन् 1985 में लद्दाख शांति स्तूप समिति के तहत भिक्षु ग्योम्यो नाकामुरा द्वारा करायी गई और उद्घाटन अगस्त 1991 में 14वें दलाई लामा श्तेनजिन ग्यात्सो द्वारा किया गया।
लेह के पश्चिम में 65 किमी की दूरी पर अलची गोम्पा मठ है, जहाँ लकड़ी की अद्भुत नक्काशी के बीच एक हजार साल से पुराने भित्तिचित्र हैं, जो बुद्ध के जीवन को दर्शाती हैं। बैठी हुई मुद्रा में बुद्ध की मूर्तियों के साथ अन्य सुंदर कलाकृतियाँ हैं। आभूषणों से लदी बीस फीट ऊँची एक भव्य मूर्ति है। लेह से 20 किमी दूर, सिन्धु नदी के किनारे एक अन्य मठ है थिक्सी गोम्पा। इस बारह मंजिला मठ को लेह के सभी मठों से ज्यादा आकर्षक बनाया गया। कहा जाता है कि कभी इस मठ में दो सौ से ज्यादा लामा रहा करते थे। मठ के कक्ष मूर्तियों, स्तूपों, थांगका, पुरानी तलवारों तथा दीवारों पर तांत्रिक कलाकृतियों से भरे हुए हैं। अक्टूबर-नवम्बर के बीच यहाँ थिक्सी उत्सव का आयोजन होता है।
लद्दाख में गाल्डन नमछोट, बुद्ध पूर्णिमा, दोसमोचे और लोसर नामक त्यौहार बड़ी धूम-धाम से मनाए जाते हैं। दो दिनों तक चलने वाले ‘दोसमोचे’ में नृत्य करते हुए बौद्ध भिक्षु दुर्भाग्य और बुरी आत्माओं को दूर रखने के लिए अनुष्ठान करते हैं। पूरे एक महीने तक चलने वाले ‘साका दावाश’ में गौतम बुद्ध के जन्मदिन, बुद्धत्व और उनके नश्वर शरीर के खत्म होने का जश्न मनाया जाता है। इसे तिब्बती कैलेंडर के चौथे महीने, यानी मई या जून में मनाया जाता है।
खान साहब की मदद से खारदुंगला, नुब्रा तथा पेंगोंग के लिए हमारा दस दिन का परमिट बन गया था। अगली सुबह नाश्ता कर हम चल दिए। मार्ग में सेना के वाहनों के अलावा टूरिस्टों के ही कुछ वाहन मिले। शायद ज्यादा बसासत न होने की वजह से सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट कम होगा। वैसे नुब्रा वैली के लिए मंगल, वीरवार तथा शनिवार को सुबह छः बजे की बस सेवा है जो दूसरे दिन वापस आती है। कुछ टैक्सियों, जिनके भीतर उल्लसित यूरोपियन पर्यटक दिख रहे थे, की छतों पर साइकिलें टँकी थीं। ये खारदुंगला तक जीप में जाएँगे और वहाँ से साइकिल से लेह तक आने का रोमांच लेंगे। रास्ते में दो साईकिल सवार चढ़ाई में धीरे-धीरे खारदुंगला की ओर बढ़ रहे थे। करीब एक घंटे बाद आगे के वाहनों का कारवाँ थमा दिखा। बाहर निकल देखा तो आगे एक बैरियर बंद था। पता चला कि बीआरओ की टीम सड़क को ठीक कर रही है। मार्ग पाँच-छः घण्टे बाद ही खुलेगा। इस जगह की ऊँचाई तकरीबन 16,000 फीट होगी। इतनी ऊँचाई पर अन्य अनेक पर्यटकों की तरह हमें भी दिक्कत महसूस होने लगी। सड़क पर इधर- उधर चलते-बैठते में बेचैनी हो रही थी। मन भटकने लगा कि आगे नुब्रा घाटी जाएँ या फिर यहीं से वापस हो लें।
दो बजे के बाद बैरियर खुला तो वाहन आगे सरकने लगे। बीआरओ की गैंग के मजदूर सुबह से लगातार इस ऊँचाई पर काम करने के बाद सड़क किनारे अपनी पोटलियों से रोटियाँ निकाल कर अपनी भूख मिटा रहे थे। यूँ तो बीआरओ (बार्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन) सड़क परिवहन मंत्रालय के अंतर्गत आता है, लेकिन इसका ढाँचा एक तरह से सेना की तरह ही है। भारतीय सेना के बहुत से इंजीनियर डेपुटेशन पर बीआरओ में कार्य करते हैं।
सड़क में पड़े बड़े-बड़े बोल्डरों के कारण रुकते-रुकाते हुए खारदुंगला पहुँचे। चारों ओर हजारों पवित्र पताकाएँ तेज हवा में फड़फड़ा रही थीं। ऊँचाई की वजह से अकसर यहाँ शारीरिक दिक्कतें हो जाती हैं। इसलिए सेना की पोस्ट में एक मेडिकल की टीम हर वक्त तैयार रहती है। हमारे एक साथी को भी दिक्कत महसूस हुई तो हम तुरंत ही मेडिकल रूम की ओर गए। बीसेक मिनट के बाद जब उसने कहा कि अब ठीक लग रहा है तो हमने राहत की साँस ली। सेना के डाक्टर ने हमें नुब्रा घाटी की बजाय वापस लेह जाने की सलाह दी। खुद मैं भी सिरदर्द से परेशान हो रहा था। आपस में बातचीत कर हमने वापस लेह जाने का तय किया। दरअसल हम सभी इतनी ऊँचाई में दिन भर बिना शारीरिक श्रम के रहे, जिससे हमारा शरीर ऊँचाई का अभ्यस्त नहीं हो सका था। जबकि इससे पहले हम सभी बीस हजार फुट से भी ज्यादा की चोटियों को नाप चुके थे। नुब्रा और पेंगोंग न जा पाने का मलाल रहा।
‘लद्दाख के बाग’ के नाम से मशहूर नुब्रा घाटी को लद्दाखवासी ल्दुम्र के नाम से पुकारते हैं। गर्मियों में यहाँ की घाटी रंगबिरंगे जंगली गुलाबों से भर जाती है। बताते हैं कि सातवीं शताब्दी से पूर्व नुब्रा घाटी में बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। बाद में चीनी, मंगोलियाई और अरबों के आक्रमणकारियों के रूप में आने पर इस घाटी में इस्लाम का प्रभुत्व हो गया। नुब्रा घाटी में पनामिक गाँव, एन्सा मठ और दिस्कित मठ हैं। पनामिक गाँव गर्म पानी के झरने के लिए प्रसिद्ध है जो इस जगह की सरहद पर स्थित है। करीब 350 वर्ष से भी ज्यादा पुराने दिस्कित मठ को सबसे पुराने और सबसे बड़े बौद्ध मठों में एक माना जाता है। करीब 4,250 मी. की ऊँचाई पर स्थित पेंगौंग के बारे में सुना था कि यहाँ नीले रंग में रंगी 134 किमी लंबी और कुल 604 वर्ग किमी का घेरा लिए खारे पानी की एक झील है। इस झील का एक तिहाई हिस्सा भारत में है तथा शेष चीन के कब्जे में है। झील का खारा पानी प्रवासी पक्षियों को भी बड़ी संख्या में आकर्षित करता है। जाड़ों में झील के जमने पर इसकी सतह पर आइस स्केटिंग भी होती है।
खारदुंगला से ज्यों-ज्यों हम लेह को नीचे उतरते गए, हवा का दबाव भी कम होने लगा। एकबारगी तो मन किया कि वापस नुब्रा को ही चल दिया जाये। मगर फिर वापस लेह उसी गैस्ट हाउस में पहुँच गये।
सुबह खान साहब से विदा लेकर हम श्रीनगर को चल पड़े।
(जारी है)