कचहरी जाना भी तो एक शगल है

court-and-lawअमूमन हर आदमी को कोई न कोई शौक- शगल- खब्त- आदत- लत होती है। फेहरिश्त काफी लंबी हो सकती है। इसमें कचहरी जाना भी शामिल है। बड़ी ही जानदार लत है। तंबाकू जैसी असरदार। कब गिरफ्त में ले लेती है, पता नहीं चलता। कचहरी भी आसानी से नहीं छोड़ती।

मेरी देखा-देखी कई जवान अधेड़ हो गए और अधेड़ बूढ़े। सालों से न जाने किस बात का मुकदमा लड़ रहे है ? मुझे तो लगता है कि वो कहीं भूल न गए हों कि मामला क्या था, किस बात पर अनबन हुई थी ? एक साहब किसी का किस्सा सुना रहे थे कि वो दोनों इस बीच आपस में समधी बन गए पर केस अपनी जगह चल रहा है। हो सकता है किस्सा मनगढ़न्त हो। लेकिन समय तो वाकई इतना ही लग जाता है कि दोनों पक्ष भूल भाल चुके होते हैं। बशर्ते मामला कतल का न हो। या एक पक्ष खानदानी मुकदमेबाज न हो या दूसरे पक्ष का लड़का वकील न हो। ऐसे में लोग कानाफूसी करते हैं कि दोनों पक्षों के वकील आपस में मिल जाते हैं और मामले को जितना हो लटकाए रहते हैं। क्योंकि उन्हें हर तारीख पर फीस मिलती रहती है।

कुछ साल पहले मेरे दिमाग में एक विचार आया। उस समय मुझे यह बड़ा ही मौलिक विचार लगा। मैंने सोचा क्यों न अल्मोड़ा कचहरी में बैठकर टिकट- कागज- स्टॉम्प बेचने का काम किया जाये। काम हल्का-फुल्का। नौकरी या दुकानदारी जैसी कोई बंदिश नहीं। मन हुआ गए वर्ना छुट्टी। दस से पाँच बजे तक जैसी कोई मजबूरी नहीं। मैंने अपने एकाध अधिवक्ता मित्रों से यह बात साझा की। उन्होंने भी कहा कि अच्छी बात है। आ जाओ। दिन भर में ईमानदारी के सौ-पचास तो कहीं नहीं गए। तुम बैठो तो सही बांकी हम हैं।

तो इस तरह दो-तीन चक्कर तहसील-थाने के लगाने और मात्र दो सौ रुपया अदा करके मुझे स्टाम्प विक्रेता का लाइसेंस मिल गया। उसमें कई अधिनियमों का जिक्र था जो अधिकांश या शायद सभी सन् 18सौ कुछ में बने थे। कहा जाता था कि इनमें किसी भी अधिनियम का अतिक्रमण करने पर छह माह का कारावास या पाँच सौ रुपया जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं। यह समझाने वाला कोई नहीं था कि मेरी हद कहाँ तक थी और अतिक्रमण कहाँ से शुरू होता था। दिमाग में एक गुमनाम सा डर वहीं बैठ गया।

एक परिचित महिला अधिवक्ता ने बैठने का इंतजाम करवा दिया। धर्मानन्द जोशी जी के तखत पर बैठने की इजाजत दिलवा दी। धर्मानन्दजी पुराने अराइजनवीश थे। उनके शतायु होने में कुछ ही बरस बांकी थे। शायद नब्बे वर्ष के रहे होंगे उस समय। धर्मानन्दजी काम करना कब का छोड़ चुके थे। वह उम्र काम करने की होती भी नहीं। हो भी नहीं पाता। उन्हें कचहरी आने का लगभग आधी सदी का अभ्यास था। घर में क्या करते ? लाठी टेकते, दीवार पकड़ते हुए कचहरी आ जाते। अपने तखत पर आकर बैठ जाते। लोगों से गपियाए, पुरानी बातें याद कीं, चाय पी और दो-एक घण्टे बाद वापस चल देते।

धर्मानन्दजी कचहरी को अकसर अजीब-सी नजरों से देखा करते थे। जैसे कहीं और आ गए हों। उनकी आँखों में अविश्वास और मायूसी साफ दिखती थी। दरअसल उन्होंने वह जमाना देखा था जब कचहरी में हर रोज मेले-सी रौनक रहा करती थी। बकौल उन्हीं के पेशाब करने की फुर्सत नहीं हुआ करती थी। तब इतनी तहसीलें भी नहीं थीं। पिथौरागढ़ अलग जिला नहीं बना था। रही सही कसर बागेश्वर जिला बनने से पूरी हो गई। उनके इर्द-गिर्द लोगों का ताँता लगा रहता था। लोग खुशामदें किया करते थे कि हमारा काम कर दो, दूर जाना है। घी के डिब्बे और न जाने क्या-क्या लाया करते थे। अक्सर दो-चार लोगों को घर में सुलाना पड़ता था देर हो जाने की वजह से। अब देखो, क्या है यहाँ ? धूल उड़ रही है। एक एफिडेविट के लिए वकील झपट रहे हैं। ये काम वकील का नहीं होता।

धर्मानन्दजी अपने तेज-तर्रार स्वभाव के लिए जाने जाते थे। लेकिन कुछ ही समय में उनसे मेरी अच्छी आत्मीयता हो गई। उनका तखत भी उन्हीं की तरह उम्रदराज हो चुका था और अब टूटा तब टूटा की स्थिति को पहुँच चुका था। मैंने कुछ लकड़ी खरीदी, कुछ का जुगाड़ किया और नया तखत बना के कचहरी पहुँचा दिया। नया तखत देखकर वो बड़े खुश हुए। बार-बार उनके मुँह से वाह-वाह निकलता रहा। शायद उस दिन उन्होंने मुझे दो बार चाय पिलाई। पहले मैं उन्हें चाय पिलाता था। बाद में वो मुझे पिलाने लगे। मैं बीच-बीच में हिसाब बराबर कर दिया करता था। धर्मानन्दजी कहते- कहाँ से पिलाओगे चाय ? क्या हो रहा है यहाँ, मिट्टी उड़ रही है। लो, चाय कह के आओ। अभी तक वो बदमाश आदमी यहाँ बैठा था चाय की फिराक में, तब मैं चुप रहा। साले को इतनी तनख्वाह मिलती है मगर चाय पिएगा हराम की। दस रुपये में ईमान बेच देते हैं ये लोग।

लोग बताया करते थे कि एक जमाने में उनके तखत पर बड़ी रौनक रहा करती थी। काम-काज के अलावा वहाँ दूसरी गतिविधियाँ भी होती रहतीं। मसलन थोड़ी देर पहले रबड़ी का भोग लगा था, अब दूध-जलेबी आ गई है। जाड़ों की गुनगुनी दोपहर में नींबू सानने का आयोजन हो रहा है। मीठा खाकर अघा गए तो कोई नमकीन चीज आ गई है। मुझे पता चला कि धर्मानन्द जी शुगर के मरीज हैं, लेकिन वो रबड़ी से बाज नहीं आते थे। उनकी बास्कट की जेब में अकसर टॉफियाँ निकलती थी। इस उम्र में भी वो बिना चश्मे के पढ़ लिया करते थे।

मुझे लगा कि यार कचहरी में दाखिल होते हुए आदमी की बिस्मिल्लाह ही गलत हो रही है। कचहरी के मेन गेट के बीचों-बीच जमीन में एक पत्थर गढ़ा है। वो इसलिए कि काफी बड़े किवाड़ उल्टी दिशा में बाहर की ओर न जा सकें। लोग उस पत्थर को शिवलिंग नुमा कोई चीज समझ कर उसे श्रद्धा से छू कर अन्दर जाते हैं। इसे प्रतीक रूप में लें। मतलब कि आप खुदा के धोखे में बुत को सजदा कर बैठे। अन्दर तो बुतों की राजधानी है। हर बुत खुदा का रूप धरे बैठा है। आखिर कितने धोखे खाइएगा ?

कचहरी परिसर में एक काफी पुराना राम मंदिर है। कचहरी में काम करने वाला हर शख्स सुबह पहले यहाँ मत्था टेकता है। फिर जाकर अपना काम शुरू करता है। कुछ समय में मुझे महसूस हुआ कि ये सभी लोग सुबह अपनी अन्तरात्मा और संवेदना यहाँ जमा कर देते हैं। शाम को उठा ले जाते हैं। तभी तो कचहरी में कई बार ऐसा भी हो जाता है कि कोई आदमी किसी वकील को पूछता हुआ आता है, तो कोई दूसरा आदमी उसे पकड़ लेता है कि वो वकील साहब तो महीने भर को बाहर गए हैं। मुझे बताओ क्या काम है….. अक्सर सीनियर अपने जूनियर से दिन भर काम करवा के जेब खर्चा तक नहीं देते। एक फीस जो दो लोगों में बँटनी है, कई बार एक ही आदमी डकार जाता है। ऐसी भी कानाफूसी सुनने को मिलती हैं कि फलाँ वकील को एक बार अदालत ने एक गरीब आदमी की पैरवी के लिए न्यायमित्र नियुक्त किया लेकिन फिर भी उसने उस आदमी से पैसे झटक लिए। वगैरा-वगैरा। पता नहीं इस सब के लिए लोग कितने दोषी हैं और सिस्टम कितना। लेकिन हर जगह की तरह यहाँ भी कुछ अपवाद मिल जाते हैं। कुछ बेहद सरल लोग भी मैंने यहाँ देखे। ऐसे भी लोगों को मैं जानता हूँ जो काम करके भी मुवक्किल से फीस नहीं माँग पाते। क्लाइंट उन्हें किसी घाघ वकील की तरह बेवकूफ बना जाता है। अपना काम करवा कर न सिर्फ फीस मार जाता है बल्कि कई बार तो वापसी का टिकट भी वकील से ही माँग लेता है। लेकिन यह कमीनापन उसने सीखा कहाँ से, इसी कचहरी से तो !

महीना बीतते-बीतते मुझे समझ में आ गया कि बेटा जी तुम ये कहाँ आ गए। ऐसी राय तो किसी दुश्मन को देनी चाहिए थी। तुम खुद को दे बैठे। एक तो मेरी दुकान फ्लॉप हो चुकी थी। दूसरा मैंने महसूस किया कि कचहरी परिसर में घुसते ही मुझमें असुरक्षा घर कर जाया करती थी। मैं एक अजीब-सी सिकुड़न, झिझक और घुटन महसूस करता था। मुझे अपने चारों ओर नकारात्मक तरंगें महसूस हुआ करतीं। मुझे लगा कि यह जगह धूप सेकने, समय काटने और दूसरों की तकलीफों का धुआँ देखने के लिए अच्छी है। मगर धंधा अपने बस का नहीं। काश ! मैं खुद को उस माहौल के मुताबिक ढाल पाता तो शायद आदमी हो गया होता। जिसे कहते हैं ‘क्याप्प’ हो गया हूँ।

कचहरी में साफ-सुथरी और शुद्ध भाषा लिखने वाले भी कम ही देखे। लिखे बंदा पढ़े खुदा। शपथपत्र में एक ही पैरा या उसी आशय का पैराग्राफ दो-तीन बार आ जाना सामान्य बात है। आखिर में सभी यही लिखते हैं- पैरा एक लगायत इतने को मैं सही एवं सत्य होना घोषित करती/करता हूँ। मैंने कई विद्वानों से पूछा कि यह सही एवं सत्य क्या है ? किसी ने तसल्लीबख्श जवाब नहीं दिया। एक अधिवक्ता साहिब बाहर को हमेशा बहार लिखती थीं।

पत्रकारों वाला दंभ मैंने वकीलों में भी देखा। वकील ही क्यों कचहरी से जुड़ा हर आदमी खुद को औरों से जरा अलग ही समझता है। धर्मानन्द जी अकसर मुझे बताया करते थे कि देखो, ये वकील अच्छा है, ईमानदार है, विद्वान है, फलाँ ठग है, वो निरा बेवकूफ है। इसे देखो, बूढ़ा हो गया काम करते करते लेकिन काम आज भी इसे ढेले भर का नहीं आता। धर्मानन्द जी उस उम्र में भी नॉनवेज सुनने-सुनाने में नहीं चूकते थे। लगभग साढ़े बारह-एक बजे वे लाठी पकड़ते और जूतों में पैर डालते हुए मुझ से कहते- तुम भी जाओ घर को, क्या है यहाँ ? दुनिया खतम है। खतम। और लड़खड़ाते कदमों से सीढि़याँ उतरने लगते।

आज सोचता हूँ कि दुनिया खतम से उनका मतलब शायद कचहरी में काम-काज न के बराबर रह जाने से होता होगा। वाकई काम कचहरी में बेहद कम है। जो है वह कुछ लोगों तक सिमट कर रह गया है। इस बात की गवाही कई वकीलों के कोट देते हैं। कोटों का रंग उड़ गया है। जेबों में छेद हैं। आस्तीनें घिस गई हैं…..

एक दिन शाम के वक्त किसी ने मुझे बताया कि आज तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारा तखत चारों खाने चित्त हो गया। सुनकर अच्छा-सा लगा। दिमाग में साफ-साफ कुछ नहीं था, लेकिन ऐसा ही कुछ मैं कई दिनों से चाह रहा था कि हो जाए। दूसरे दिन एक वकील मित्र ने बताया कि तखत के अवशेष भी गायब हो चुके हैं। धर्मानन्दजी तखत टूटने से पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे।

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