पहाड़ों के पारम्परिक अनाज- भट (काले और सफेद), रैंस, गुरूंस, सिमि, गुरसुंटि, सुंट, ग्यूँ, धान, जौ, उजौ, कौंण, मादिर, मडु, चुव, ध्वाग या मक्का, राजमा आदि के सही विकास और सुधार के लिये विशेष शोध, परीक्षण तथा उन्नति पर ध्यान देने की आवश्यकता है। भट एक खास महत्व रखता है, क्योंकि यह शीत ऋतु का मुख्य भोजन है। पहाड़ी भट सोयाबीन के कारण अपनी पहचान खो रहा है, पर इसका स्वाद और पौष्टिकता सोयाबीन में नहीं होती। दालों में मूंग, मसूर (दोनों हलसुरि और खेतसुरि किस्में), मटर, कल्यों, मास या उड़द, गहत या कुल्थी इत्यादि और तिलहनों में तिल, सरसों, राई, अलसी तथा अन्य तेल देने वाले फलों जैसे आडू, खुमानी, प्लम, कुसम्यारू के बीजों पर भी परिश्रम की आवश्यकता है। भांग पहाड़ में सभी जगहों पर उगाई जाती है। इसके बीज खटाई-भाजी के काम आते हैं और डंठलों का रेशा रस्सी बुनने के काम आता है। अतः इसके ऊपर भी शोध की अपेक्षा है। मादकता केवल पत्तियों और कलियों में रहती है।
गहत या कुल्थी जैसे अनाज कम पानी चाहने वाले होते हैं और छोटे-संकरे खेतों में आसानी से उगते हैं। नदियों के किनारे सिंचाई वाले खेतों में कई प्रकार के धान पैदा होते हैं। उपराऊँ भूमि में भी बरसात में रोपाई हो सकती है। शाल, जमाल (लाल व काली), खजिया और बासमती पैदा हो सकती है। अन्यथा बणपास (साठी), नानधानि, छोट्टि, थापचीनी, कलमुखी आदि प्रकार के धान उगाये जा सकते हैं। ये सारी धान की किस्में पहाड़ों में हजारों सालों से उगायी जाती रही हैं। कई जातियों के गेहूँ जैसे लाल, सफेद, रोयेंदार और बिना रोयेंदार बाल वाले, छोटे तथा बड़े दानों वाले उगाये जाते हैं। इन में कई बार रोग संक्रामक लग जाते हैं। इनके निवारण के लिये खोज-परख होनी आवश्यक है।
बाग-बगीचों में अखरोट, पांगर, सेब, नाशपाती, नींबू, दाड़िम, अनार, आडू, खुबानी, प्लम, स्ट्रॉबेरी, शहतूत, जामीर तथा इनके अतिरिक्त च्यूर, चिलगोजे या स्यूँत, अंजीर और बादाम आदि अच्छी तरह पैदा हो जाते हैं। वनों में काफल, किलमोड़े, हिसाऊ, घिंघारू, मेहल, काले हिसाऊ, बेडू, गढ़ मेहल, आंवला, स्यूंत, तुस्यार जैसे खट्टे-मीठे फल और रीठे जैसी उपज पहाड़ों को विशेष रूप से सम्पन्न बनाती है। पेड़ों में बाँज, चीड़, देवदार, कैल, तून, कटौंज, काफल, अंयार, शिलिंग, लोध, पय्या या पदम, शाल, बुरूँस, दालचीनी, मेहल, दिदिल, फल्यांठ, हर्र, आंवला, बेहड़ा, सिरीस, तिमूर या टमरू, काफड़, भोजपत्र, हल्दू, शीशम, उतीस, तिलौंज, बेडू, अंजीर, खरसू, बेल, कचनार, शहतूत आदि अनेक प्रकार के बनों में मिलते हैं। झाड़ियों में घिंघारू, हिसालू, काले हिसालू, किलमोड़, दारूहल्दी, बाँस, रिंगाल, थाम, पुटुस या लान्टाना, अल्ल, सिंसूण या बिच्छू बूटी, कुंज आदि आम तौर पर होती हैं। बेलों में गेठी, तरूण, अंगूर, भरड़, कुष्माण्ड, करेला, मीठा करेला, इन्दरायनी, मालू, कौंच इत्यादि गाँवों और जंगलों में होते हैं। कई प्रकार की फूलों वाली बेलें जंगलों में होती हैं। फूलों की यहाँ कई जातियाँ मिलती हैं। ये लाभकारी और वित्तोपार्जक भी होती हैं। यथा गुलाब, चमेली, चम्पा, जुही, चन्द्रमल्लिका, सूरजमुखी, त्यूलिप, बुरूँस, चेरी, डहेलिया, गेंदा, गुलदाउदी, धतूरा, जवाकुसुम, कनेर, सोनजुही, लिली, डेजी, जिरेनियम, पॉपी, कार्नेशन, डैफोडिल, जर्बेरा, तरह-तरह के आॅर्किड, पैंजी, अकलवर, कैना, कमल, कुंज, रात की रानी, रजनीगंधा, भडेरा, प्योंली।
वज्रदन्ति, तून, तिमूर, हर्र, लहसुन, दारुहल्दी, धुना, तितपाती, कन्टकारी, सिसूण, मेथी, भांग, ऐरालू, गुर्ज, ढोलदामड़ी, हींग, कुचिला, असगन्ध या अश्वगंधा, गन्धरायणी, नागकेशर, हल्दी, अदरक, दालचीनी या तेजपात, ब्राह्मी, शतावरी या कैरुवा, सर्पगन्धा आदि का पारम्परिक वैद्यकी और घरों में व्यवहार होता आया है। ऐसा ही अदरक, मेथी, हल्दी, बड़ी इलायची, जम्बू, धनिया, राई, यारसा गुम्बा या कीड़ा जड़ी आदि के साथ है। साग-सब्जियों में आलू, प्याज, टमाटर, गडेरी या अरवी, बैंगन, करेले, तरोई, लौकी, कद्दू, भिण्डी, हरी मिर्च, चिचिण्डा, मूली, अंजीर, मटर, बाकुला, सेम, राजमा, बरबटी, कलों, लोबिया, गेठी, तरूड़, खुम्बी, मेथी, पालक, चौलाई, बथुवा, फाफर, झनकारा, लिडू.ड़ या फर्न, सलाद, सगिया मिर्च या शिमला मिर्च, फूलगोभी, बन्द गोभी, इत्यादि को यदि योजनाबद्ध तरीके से तथा सुव्यवस्थापूर्वक काम किया जाये तो उत्तराखण्ड देश भर को तरकारी की आपूर्ति कर सकता है।
बढ़ती आबादी, सड़कों का निर्माण तथा विकास के नाम बनते जाते भवन, संस्थान और संरचनाओं के कारण पहाड़ एकदम नंगे हो गये हैं। जिन वनों में आज से साठ साल पहले दिन के समय भी अकेले जाने में डर लगता था और जिनमें कई तरह के जानवर जैसे गोह, शशक, रंगबिरंगे सांप, चितरौल, सेही, तीतर, चाखुड़, वनमुर्ग, सियार, वन विडाल, बघेरे, नेवले आदि सघन झाड़ियों से भागते, दुबकते, सरकते, उछलते, फुदकते रास्ता काटकर निकल जाते थे आज उनमें वृक्ष-झाड़ियाँ पहले से दशमांश भी नहीं मिलते और जीव-जन्तु तो नदारद ही हो गये हैं। उन जंगलों को फिर से पूर्ववत न किया गया तो हमारी स्वयं की जीवनरक्षा असम्भव हो जायेगी।
Sabh ko milkar is vishay Mai sochna chaheye