वे दिन भी क्या दिन होते होंगे जब खबरों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने में हफ्ते लग जाते होंगे। मगर उस दौर में भी अखबार छपने लगे थे और जबर्दस्त उत्साह तथा जोश के साथ समाज को खबरें देने और जागरूक करने का काम कर रहे थे। योँ तो भारत में पत्रकारिता की उम्र अब करीब दो सौ पैंतीस वर्ष की हो चुकी है, मगर आजादी की लड़ाई के दौर में हमारी पत्रकारिता ने जो धार और तेवर दिखाए वैसे आज नहीं रहे। वैसे क्या, उसका सत्तर-अस्सीवाँ हिस्सा भी नहीं बचे। आज अखबार एक प्रोडक्ट है। पत्रकारिता एक बाजार है। बाजार क्यों बनी, इस पर बहस हो सकती है मगर यह तय है कि पत्रकारिता न तो अब मिशन है और न ही निःस्वार्थ है। वह जमाना और था जब एक तोप से मुकाबिल होने के लिए अखबार निकालने की बात की जाती थी, मगर आज की पत्रकारिता तोप चलाने वाले के साथ बैठ कर की जाने लगी है।
बदला है, बहुत कुछ बदला है। बदला है पत्रकारिता का उद्देश्य, बदला है पत्रकारिता का तेवर, बदले हैं पत्रकारों के तौर-तरीके और बदल गया है पत्रकारिता की पूरी तकनीक का ढाँचा। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व नेपाल में लोकतंत्र बहाली आन्दोलन के दौर में जिस दिन राजमहल से राजा के अधिकार कम कर लोकतंत्र की बहाली की बड़ी घोषणा हुई थी, उस दिन काठमाण्डो के राजदरबार में सौ से अधिक विदेशी पत्रकारों के साथ हम लोग भी उस ऐतिहासिक घोषणा के साक्षी बने थे। घोषणा खत्म होने के बाद हम लोग जब बाहर निकलने लगे तो मेरी अपने साथी पत्रकार अश्विनी भटनागर से इस बात को लेकर चर्चा हो रही थी कि बाहर खड़ी हजारों की युवा भीड़ के सम्मुख नेपाली कांग्रेस ने नेता किस ढंग से इस ऐतिहासिक जीत की घोषणा करेंगे। दरबार छाता से बाहर जनता तक पहुँचने के लिए करीब तीन-चार सौ मीटर चलना पड़ता था। हम नेपाली कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता गणेश मान सिंह के साथ धीरे-धीरे बाहर आ रहे थे। हमें लग रहा था एक बड़े आन्दोलन की परिणति जानने के लिए जनता के मन में बहुत उत्सुकता होगी। लोग बहुत आतुर होंगे यह जानने के लिए कि आखिर राजमहल ने क्या कहा ? मगर हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब हमने देखा कि जैसे ही एक गलियारा पार कर हम जनता की निगाहों के सामने पहुँचे, अपने नेताओं को देख कर नेपाली जनता जीत के नारे लगाने लगी! जिन्दाबाद की गूँज हमारे कानों में भी पहुँचने लगी। नेपाली कांग्रेस के नेता भी भौचक्के थे कि लोगों को पहले ही कैसे पता चल गया, जबकि अन्दर से अभी कोई बाहर आया ही नहीं था और तय यह था कि अन्दर जो भी घोषणा होगी उसे बाहर आकर गणेश मान सिंह जनता को बताएँगे ?
बाद में पता चला कि लोगों ने घोषणा का सजीव प्रसारण बीसीसी रेडिया पर सुन लिया था। दरअसल जब अन्दर घोषणा हो रही थी, उस वक्त वहाँ पर मार्क टुली भी मौजूद थे। वे अपने साथ रिकार्डिंग उपकरणों के अलावा एक सेटेलाइट फोन भी लेकर आए थे। जैसे ही घोषणा शुरू हुई, उनके सेटेलाइट फोन के जरिए यह बीबीसी मुख्यालय तक पहुँच गई और बीबीसी ने उसे अपनी नेपाली सेवा में उसे सजीव प्रसारित कर दिया। ‘एशिया व भारतीय उपमहाद्वीप में सेटेलाइट फोन का सजीव प्रसारण के लिए यह पहला उदाहरण था। आज प्रसारण तकनीक में इतना बदलाव आ गया है कि देश के दूरदराज के गाँवों से भी स्मार्टफोन के जरिए रेडियो या टीवी के लिए ऑडियो और वीडियो सजीव प्रसारण किए जा सकते हैं। भारत में करीब 25 वर्ष में ही टीवी पत्रकारिता का स्वरूप बहुत अधिक बदल गया है। शुरूआती दौर में जो टीवी पत्रकारिता के कैमरे, सम्पादन प्रक्रिया और प्रसारण प्रक्रिया थी, वह आमूलचूल बदल गई है। जब चमोली में भूकम्प आया था तो हम लखनऊ से रात भर सफर कर चमोली पहुँचे थे और वहाँ से तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के हैलीकाप्टर के जरिए टेप लखनऊ पहुँचाया था। वहाँ से टू एम बी लाइन के जरिए वह वीडियो फुटेज ‘आज तक’ के दिल्ली दफ्तर पहुँचा और फिर प्रसारित हुआ। आज यह काम चमोली में ही मौजूद कोई स्ट्रिंगर या समर्थ नागरिक अपने कैमरे और इंटरनेट या स्मार्टफोन के जरिए कुछ सेकेण्ड में ही किसी न्यूज चैनल तक पहुँचा सकता है। ‘व्हाट्सएप’ जैसे तरीके तो हर नागरिक को पत्रकार बना दे रहे हैं। लेकिन यहाँ भी बदलाव सिर्फ तकनीक में ही नहीं हुआ। टीवी का कथ्य बदल गया है, प्रस्तुतीकरण बदल गया है, विषय वस्तु बदल गई है। वहाँ भी बाजार हावी है, वहाँ भी ‘अपमार्केट’ और ‘डाउन मार्केट’ वर्गीकरण चलने लगे हैं ओर उसी के अनुरूप कंटेंट तक होता है। वस्तुतः यह भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि सबसे महत्वपूर्ण जन माध्यम होने के बावजूद आज टीवी पत्रकारिता सबसे गैर जिम्मेदार पत्रकारिता हो गई है। शायद यही वजह है कि आज टेलीविजन पत्रकारिता में चैनल हैड कहे जाने वाले पद पर दोयम दर्जे के पत्रकार काबिज होने लगे हैं, जिनकी रचनात्मकता तथा बौद्धिक स्तर संदिग्ध है।
अखबारी पत्रकारिता के बदलाव तो जगजाहिर हैं। 1836 में भारत की तत्कालीन राजधानी कोलकाता से ‘समाचार चन्द्रिका’ की 250, ‘समाचार दर्पण’ की 398, ‘बंगदूत’ की 70 और ‘पूर्ण चन्द्र’ की 100 प्रतियाँ प्रकाशित होती थीं। आज ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भाष्कर’ की डेढ़ करोड़ से ज्यादा और ‘हिन्दुस्तान’ तथा ‘अमर उजाला’ की एक-एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ प्रकाशित हो रही हैं। यानी प्रसार संख्या के मामले में स्थिति बहुत ही बदल चुकी है, लेकिन प्रभाव के मामले में यह बदलाव नकारात्मक रूप में हुआ है। एक जमाने में सैकड़ों की संख्या में छपने वाले अखबार अपने दौर में, आज के करोड़ी अखबारों से अधिक प्रभावशाली थे और लोगों के विचारों को ज्यादा सार्थक ढंग से प्रभावित करते थे।
प्रिंट मीडिया में अपने उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के तेवर, हिम्मत और पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा के लिए समर्पण के प्रतीक दो उदाहरणों का उल्लेख यहाँ जरूरी है। 1868 से नैनीताल से प्रकाशित ‘समय विनोद’ के बाद ‘अल्मोड़ा अखबार’ उत्तराखण्ड का दूसरा सबसे पुराना अखबार था (वैसे 1842 में समाजसेवी जॉन मेकिनन द्वारा अंग्रेजी में निकाला गया ‘द हिल्स’ उत्तराखण्ड का पहला अखबार माना जाता है)। प्रारम्भ में सरकारपरस्त होने के बावजूद 1913 के बाद ‘अल्मोड़ा अखबार’ राष्ट्रवादी हो गया। 1918 में इसके लेखों से नाराज होकर ब्रिटिश सरकार ने इस पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए। अखबार के संचालकों ने प्रतिबन्ध सह लिए, पर अंग्रेजों के आगे घुटने नहीं टेके। इस जंग को ‘शक्ति’ के रूप में एक नया अखबार निकाल कर तब के सम्पादकों ने जीत लिया। ऐसा ही एक और मामला 1905 से देहरादून से प्रकाशित ‘गढ़वाली’ अखबार का है। 1930 में तिलाड़ी में राजा की सेना की गोलीबारी की बर्बरता की खबर छापने पर टिहरी रियासत ने इसके तत्कालीन संपादक विश्वम्भर दत्त चन्दोला से खबर देने वाले संवाददाता का नाम बताने को कहा। चन्दोला के इनकार पर उनके विरुद्ध मुकदमा चलाया गया। उन्होंने दो साल की कैद स्वीकार कर ली, मगर पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करते हुए अपने संवाददाता के नाम का खुलासा नहीं किया।
ये दो उदाहरण यह साफ करते हैं कि उत्तराखण्ड की पत्रकारिता किन आदर्शो की स्थापना कर चुकी है। मगर आज सरकार का सूचना विभाग यह तय करता है कि अखबारों में क्या छपे। बहुत से अखबारों के तो उत्तराखण्ड से संस्करण ही इसीलिए निकल रहे हैं कि वे कमजोर मुख्यमंत्रियों की चाटुकारिता कर विज्ञापन और दूसरा माल बटोर सकें। पत्रकारिता एक नगदी फसल हो चुकी है। जैसा भाव वैसा उत्पादन। मार्च 2015 में पौड़ी में ‘पच्चीसवें उमेश डोभाल स्मृति समारोह’ में स्वयं हाजिर होने की पेशकश का प्रस्ताव रखने के बाद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ऐन मौके पर खुद ही अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया था। इस सूचना पर एक राजनीतिक हस्ती ने मुझसे कहा था, अरे, अगर आपने देहरादून के टीवी वाले पत्रकारों से कहा होता और वे मुख्यमंत्री जी से एक बार कह देते तो फिर मुख्यमंत्री जी हर हाल में आते ही आते। इस बात का उल्लेख सिर्फ इसलिए कि इससे पत्रकारिता के बदलते रूप को समझा जा सकता है। कलम के तेवरों को बचाने के लिए जान की बाजी लगा देने वाले पत्रकार की पच्चीसवीं स्मृति में मुख्यमंत्री तभी आते जब रोज उनका चेहरा दिखा सकने वाले पत्रकार उनसे ऐसा कहते ? अभी हाल में एक पत्रकार के युवा पिता का निधन हुआ था। मुख्यमंत्री उनके घर पहुँचे और उसके बाद पत्रकार ने मुख्यमंत्री के साथ अपनी सैल्फी यह कहते हुए पोस्ट की कि मुख्यमंत्री जी का स्नेह देख कर अपना दुःख मिट गया। यानी जब युवा पिता की मृत्यु का दुःख मुख्यमंत्री की एक सैल्फी से मिट सकता है, तो आप स्वतः ही समझ सकते हैं कि उत्तराखण्ड की पत्रकारिता कितनी बदल गई है ?
ऐसा नहीं कि व्यावसायिक पत्रकारिता के भीतर प्रतिबद्ध पत्रकारों का अभाव हो। वे काफी संख्या में हैं। मगर उन्हें जैसे-तैसे अपनी इज्जत बचा कर पत्रकारिता के धर्म को निभाना पड़ता है।