“..अभी यह मीठी बयार हमारे तन-मन को सहला ही रही थी कि एक नया मौसम शुरू हो गया- अंतरात्माओं के जागने का मौसम। यह पहली वाली की ही कोख से जन्मा है। दरअसल यह नया नहीं है। गेट-अप बदल कर आया है। हम इसे पहले आस्था के रूप में भोग चुके हैं। यह उसी का परिमार्जित रूप है।..”
-शंभू राणा
कलेंडर पर नजर डालें तो अभी गर्मी-बरसात का मौसम चल रहा है। मौसम या सीजन सिर्फ गर्मी-बरसात-जाड़ों तक महदूद नहीं होता। इसके समानान्तर भी मौसमों की और कई प्रजातियां होती हैं जिन्हें हम नजरअंदाज कर जाते हैं। मौसम, सीजन या दौर हर चीज में आते-जाते रहते हैं। साहित्य, कला, राजनीति सब जगह। कला में मूर्त और अमूर्त का दौर या कला जीवन के लिए, कला जीवन के लिए या जीवन कला के लिए की बहस, साहित्य में कहानी, अकहानी और नई कहानी का मौसम।
इस मौसम या दौर की सबसे विविधरंगी छटा राजनीति में देखने को मिलती है। थोड़ा पीछे नजर घुमाएं तो गरीबी हटाओ नाम का एक मौसम याद आता है। इन्द्रा हटाओ भी एक था। फिर एक खास किसम की तोप हमारी राजनीति की आॅंख में तिनके की तरह घुस गई। नतीजे में हमें एक राजर्षि मिले। ज्यादा समय नहीं बीता कि एक बिल्कुल ही नए किसम का मौसम आया- बेहतर दिनों की शीतल बयार बहने लगी। यह बयार अभी भी काफी हद तक बह रही है और इसके मादक असर से बहुत सारे लोगों के दिलो-दिमाग मानो अनगिनत रतजगों के बाद गहरी नींद में सुस्ता रहे हैं। यह मौसम ज्यादा मनमोहक और संक्रामक साबित हुआ। इसके असर से कोई बचा नहीं। अहले-दाना ने एक बिल्कुल नए किसम के मौसम की ईजाद की थी। इसका असर ऐटम बम फूटने जैसा होना लाजमी था। चरिन्द-परिन्द कोई नहीं बचा। गिनती भर के जो बचे, उनकी कोई बिसात नहीं। बचे रहने के कारण उपहास के पात्र बने। गद्दार तक कहलाए।
अभी यह मीठी बयार हमारे तन-मन को सहला ही रही थी कि एक नया मौसम शुरू हो गया- अंतरात्माओं के जागने का मौसम। यह पहली वाली की ही कोख से जन्मा है। दरअसल यह नया नहीं है। गेट-अप बदल कर आया है। हम इसे पहले आस्था के रूप में भोग चुके हैं। यह उसी का परिमार्जित रूप है। शब्दों से खेलना अगर आ जाए तो एक बात को कई तरीकों से कहा जा सकता है और हर बार बात नई होने का भ्रम हो ही जाता है। क्योंकि मनुष्य मूल रूप से आशावादी है, सकारात्मक सोच रखने वाला प्राणी है।
हाॅं, तो यह अंतरात्माओं के जागरण का काल है। अनुमान लगाना मुश्किल है कि कब किसकी सोई पड़ी अंतरात्मा अंगड़ाई लेकर जागेगी और किस ओर चल पड़ेगी। औरों की क्या बात, शरीफ आदमी आज-कल खुद से डरा-डरा जी रहा है। न जाने कब आत्मा खड़ी होकर क्या अनाप-शनाप बक दे। अंतरात्मा की फरमाइश पर कौन किसके साथ क्या कर डाले। किसको गले लगा ले, किसको जुतिया दे, खुद अपने लत्ते फाड़ कर सड़कों पर निकल पड़े। कुल मिलाकर आदमी डरा हुआ है यह सोच कर कि वो जिसके मातहत है, वह आत्मा की आवाज पर न जाने क्या फरमान सुना दे- क्या खाना, क्या पहनना, ये करना और वो न करना। तर्क और दलील की यहां कोई जगह नहीं होती। अंतरात्मा गूंगे के गुड़ की तरह होती है। उसकी व्याख्या मुमकिन नहीं। वह निराकार और शब्दातीत होती है।
पिछले सारे मौसम-सीजन गुजर गए, बीत गए। यह भी विदा हो ही जाएगा यकीनन। पर इन मौसमों का आना-जाना कभी खत्म नहीं होगा। रूप बदल कर ये दौर यूं ही आते रहेंगे। हमारे लिए बेहतर होगा कि हम इन्हें पहचान लें। जैसे फिल्म अभिनेताओं को पहचानते हैं- यही कलाकार पिछली फिल्म में डकैत बना था, इस फिल्म में ठग की भूमिका में है। हर बार ये मौसम वेश बदल कर आएगा और हमें बहलाएगा। हमारे भीतर नई उम्मीदें और कुछ मासूम-से अरमान जगाएगा। हर बार हम ‘देखें इस बार क्या’- यही सोच कर जिन्दगी के खटारा को कुछ और आगे खींच कर ले जाएंगे। रुत गुजर जाने पर हम पाते हैं कि कुछ सूखे पत्ते ही हमारे दामन में रह जाते हैं। अभी तक का अनुभव यही कहता है। वैसे उम्मीद आदमी को चिता में रखे जाने तक भी बनाए रखनी चाहिए।
दोष नई रुतों या उनकी ईजाद-इस्तमाल करने वालों का हरगिज नहीं, हमारी याददाश्त का है। हर बार, हर मौसम में हम यही कहते हैं कि ऐसी बारिश तो कभी देखी ही नहीं….. हम क्यों याद नहीं रख पाते कि उस बार की बारिश में कितने लोग बह गए थे। कितने हैजे से मरे। उस साल गर्मी में कितने लोग लू लगने और पानी की कमी से चल बसे थे। शीत लहर में ठिठुर कर मर जाने वालों की हमें याद ही नहीं रहती और हम वही खटराग दोहरा देते हैं- इस बार की सर्दी तो लगता है जान लेके ही मनेगी। इतना भुलक्कड़ होना ठीक नहीं। कुछ तो याद रखा कीजिए। क्यों न हम एक डायरी रखा करें। कोई फायदा नहीं। हम डायरी को भी कहीं रख कर भूल जाएंगे।
आदरणीय/आदरणीया आपको अवगत कराते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि आपकी रचना हिंदी ब्लॉग जगत के ‘सशक्त रचनाकार’ विशेषांक एवं ‘पाठकों की पसंद’ हेतु ‘पांच लिंकों का आनंद’ में सोमवार ०४ दिसंबर २०१७ की प्रस्तुति के लिए चयनित हुई है। अतः आपसे अनुरोध है ब्लॉग पर अवश्य पधारें। ……………… http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! “एकलव्य”
ना जाने कब किसकी अंतरात्मा जाग उठे….. बेहतरीन व्यंग्य रचना । सादर ।