पर्यावरण की उलटबांसियाँ – 1
विनोद अरविन्द
यह विडंबना है कि पर्यावरण को जिस तरह समझा जाना चाहिये, नहीं समझा जा रहा है। जिस तरह लिखा जाना चाहिये नहीं लिखा जा रहा है। कहीं पर पर्यावरण व्यापार है तो कहीं पर जन सामान्य को डराने का औजार। जैसी चर्चा पर्यावरण को लेकर होनी चाहिये, नहीं हो रही है। प्रभावशाली लोग निहित स्वार्थ की दृष्टि से उसकी व्याख्या कर लेते हैं, खबरें पैदा कर लेते हैं, और खबरों की तोड़फोड़ भी कर लेते हैं। अब तो माना जाने लगा है कि पर्यावरण पर रिसर्च भी प्रायोजित होती है, यानी उनका निष्कर्ष पहले तैयार होता है उसे सिद्ध करने के लिए आँकड़े भर लिये जाते हैं। आवश्यकतानुसार विकास के मोडल तैयार करवाये जाते हैं।
‘पर्यावरण’ शब्द 30-35 साल से अधिक पुराना नहीं है। शब्द था, मगर वह बी.एससी. के पाठ्यक्रम में एक छोटी सी परिभाषा तक सीमित था। उसका ऐसा व्यापक इस्तेमाल नहीं होता था। प्रकृति तब भी थी, जंगल भी थे। प्रकृति पर लेखन कम था, मगर जिम कार्बेट का लेखन तब भी उपलब्ध था। ‘मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ’ ‘जंगल लोर’ के मुकाबले ज्यादा पढ़ी जाती थी। इस सबके बावजूद जंगलों में आग कम लगती थी, जंगलों से चोरी सीमित थी। पहाड़ों के गाँव खुशहाल थे, खेती-बाड़ी होती थी। साल भर न सही, 8-9 महीने के लिए अनाज हो ही जाता था। आज जंगलों में आग एक भयानक सच्चाई है। खेती-पानी की कमी और जंगली जानवरों के अतिक्रमण के कारण खत्म होती जा रही है। और यह सब तब हो रहा है, जब देश में पर्यावरण को लेकर जबर्दस्त हो हल्ला है। कहीं पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रतिज्ञाएँ करायी जा रहीं हैं, कहीं पेड़ों को राखियाँ बाँधी जा रही हैं तो कहीं मानव श्रंखलाएँ बनायी जा रही हैं। फिर भी पर्यावरण है कि बिगड़ता ही दिखाई देता है। कभी गर्मी रिकार्ड तोड़ रही है तो कभी भयंकर ठंड। कभी विनाशकारी वर्षा हो रही है, तो कभी भीषण सूखा। कभी ग्लोबल वार्मिंग का डर जकड़ लेता है, तो कभी जलवायु परिवर्तन से घिग्घी बँधने लगती है। विकास के नाम पर नदियों के स्वाभाविक प्रवाह के साथ छेड़छाड़ हो रही है। ताकतवर लोगों के हितों को पूरा करने के लिए पर्यावरण के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है। ऐसे में कुछ प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाते हैं, जैसे:-
पर्यावरण का सच क्या है ?
हम पर्यावरण के बारे में वास्तव में कितना जानते हैं ?
क्या ऐसे संवेदनशील विषय को जाने बगैर प्रकृति से छेड़छाड़ उचित है ?
क्या पर्यावरण की चोरी हो रही है ?
क्या पर्यावरण को गरीबों से छीनकर अमीरों के हवाले किया जा रहा है ?
सही पर्यावरण की जानकारी कैसे हो ?
वृक्षारोपण से शुरू करें। निस्संदेह हमारे देश में वृक्षारोपण की परंपरा थी। प्रकृति गाँव के लिए आजीविका का भाग थी। उसके विविध उपयोग थे, इसलिए जंगल बचाना, पेड़ लगाना जरूरतें थीं। शहरी इलाकों में वृक्षारोपण जैसा कोई सार्वजनिक प्रयोजन नहीं था। आपात्काल, जो आज की नयी पीढ़ी के लिए अनजान शब्द है, में संजय गांधी द्वारा किये गये अनेक अत्याचारों के बीच जो कार्यक्रम निर्विवाद रूप से जनहित में माना गया, वह वृक्षारोपण था। उत्तराखण्ड में वन आंदोलन 1973 के आसपास शुरू हुआ। आपात्काल के दौरान सन् 1975 से 1977 तक यह कुछ सुस्त रहा और 1977 में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में विस्फोट के रूप में फटा, जिसकी गूँज पूरे देश में सुनी गई। वन बचाने का मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडे में आ गया। इस आंदोलन की असली माँग क्या थी, इस पर आगे चर्चा होगी। मगर तात्कालिक रूप से इसे पेड़ों को बचाने के आंदोलन के रूप में देखा गया। इस तरह सन् 1975 से प्रकृति के प्रति चेतना व वृक्षारोपण के सार्वजनीकरण की शुरूआत हुई।
आपको अटपटा लग सकता है, मगर मैं यहाँ पर वृक्षारोपण की निरर्थकता व दुरुपयोग की बात करूँगा। बेशक आप सोचते रहें कि जब देश भर में पर्यावरण बचाने और हरियाली फैलाने के लिये वृक्षारोपण कार्यक्रम सर्वमान्य हो चुका है, यह बेसुरा राग क्यों छेड़ा जा रहा है!
जंगल बहुत बड़ी निधि है। प्रकृति की विविधता का अप्रतिम समुच्चय है। इसमें अनगिनत वनस्पतियाँ हैं। इन वनस्पतियों में विशाल वृक्ष हमारा ध्यान सहजता से खींच लेते हैं। पर छोटे वृक्ष, झाडि़याँ, लताएँ, धरातल पर उगे (ग्राउंड फ्लोरा), भिन्न-भिन्न प्रकार के शाक व घास हमारी नजरों में नहीं आ पाते, या हम उन पर ध्यान ही नहीं देते। जंगल में पेड़ों पर उगी कई किस्म की वनस्पतियाँ भी होती हैं। कई किस्म के फफूँद, जिन्हें हम मशरूम के रूप मे जानते हैं। और भी कई सूक्ष्मजीवी होते हैं। इसी तरह कई तरह के शैवाल होते हैं। प्राणि जगत जंगल का अभिन्न हिस्सा है। बड़े जानवर व कुछेक पक्षी तो दृष्टिगोचर होते हैं, मगर छोटे कीट-पतंगे, कृमि जैसे अनगिनत प्राणी मनुष्य दृष्टि में आसानी से नजर नहीं आते हैं। संभव है कि अभी कइयों की पहचान भी न हुई हो। इन सबके बीच एक निश्चित अंतर्संबंध होता है, जिसे हम ‘ईको तंत्र’ कहते हैं। एक ‘स्वस्थ’ जंगल में कई ईको तंत्र होते हैं, जो फिर आपस में जुड़ कर एक बृहद ईको तंत्र का निर्माण करते हैं। इन तंत्रों में प्रत्येक सदस्य का एक निश्चित कार्य होता है। दुर्भाग्यवश इनका महत्व हम अपने नफे-नुकसान के हिसाब से आँकते हैं। इसे एक उदाहरण से समझें। दीमक हमारे ‘सभ्य’ समाज के लिए नुकसान का पर्याय है। घर में दीमक लगी नहीं कि नींद उड़ जाती है। उसे खत्म करने के लिए तमाम तरह के कीटनाशक इस्तेमाल किये जाने लगते हैं। पर कभी आपने सोचा कि जंगल में दीमक की जो बांबियाँ लगी रहती हैं, वे कैसे बनती हैं और प्रकृति ने उसे क्या काम सौंपा है? पेड़ तो आदमी काटकर ले जाता है। जंगल में पेड़ का ठूँठ रह जाता है। दीमक इस ठूँठ की लकड़ी खाकर उसे पुनः मिट्टी में बदल देती हैं, ताकि नये पेड़ों के लिए खुराक व परिस्थितियाँ बन सकें और पुनर्जनन, जो कि इस जीवन का आधार है, जारी रह सके। दीमक की बांबिंयों की उपस्थिति का मतलब है जंगल के पुनर्जनन के प्राकृतिक प्रयास हो रहा है। तो, दीमक उपयोगी है कि हानिकारक ?
जंगल को थोड़ा गौर से देखें। कहीं पर एक प्रजाति के पेड़ हैं, तो कहीं पर दूसरी प्रजाति के। कहीं पर मिश्रित, तो कहीं पर झाडि़याँ, कहीं पर घास के मैदान। यह कौन तय करता है कि कहाँ पर क्या उगेगा ? प्रकृति के अंतर्संबधों की सूक्ष्म जटिलता अभी हमारी समझ से कोसों दूर हैं। वृक्षारोपण में क्या होता है ? आपको बाँज का पेड़ अच्छा लगता है, तो आप बाँज का पेड़ लगायेंगे। मुझे सिलिंग का पेड़ अच्छा लगता है तो मैं सिलिंग का पेड़ लगाउँगा। कोई यूकेलिप्टस लगायेगा, कोई सागौन तो कोई गुलमुहर। पेड़ तो आपने रोप दिया, पर वह लगे या न लगे यह बाद की बात है। पहले यह बताइये कि प्रकृति पर तानाशाही चलाने वाले आप कौन होते हैं? किसने आपको ये अधिकार दिया? आपने वृक्षारोपण के लिए जो जगह चुनी है, वहाँ पर वनस्पतियों की व प्राणियों की बाकी जमात कौन लायेगा? तो यह अधूरा प्रयास क्या प्रकृति के अंतर्संबंधों को गड़बड़ायेगा नहीं? बेशक पेड़ हरियाली दे सकता है। शायद आक्सीजन भी देगा। मगर पेड़ों के ऐसे कृत्रिम समूह जंगल कैसे हो सकते हैं? वे तो जंगल के मानदंडो को पूरा ही नहीं करते। यदि प्रकृति से हम सिर्फ हरियाली और आक्सीजन ही चाहते हैं है तो फलों के बगीचे या अनाज के खेत क्या बुरे हैं?
तो आखिर मैं कहना क्या चाह रहा हूँ? निश्चित रूप से हमें प्रकृति से हरियाली और आक्सीजन चाहिये। पर और भी बहुत कुछ चाहिये जो अभी प्रत्यक्ष में नजर नहीं आ रहा है। या कहें कि अभी हमारी समझ से परे है। जिसका महत्व हमें शायद अभी महसूस न हो। आने वाले समय में उसका क्या महत्व होगा, हमें यह भी पता न हो। पर यह बात तय है कि इस प्राकृतिक धरोहर के कई अनसुलझे रहस्य हैं। बचपन में एक कहानी सुनी थी। ……एक राक्षस को कोई मार नहीं पाता। बाद में पता चलता है कि उसकी जान तो सात संमुदर पार एक द्वीप में एक पिंजरे में कैद चिडि़या में है। ऐसा ही पर्यावरण में भी है। हमें पता ही नहीं है कि किस में क्या छुपा है…. कहाँ छुपा है? किसे नष्ट करने में न जाने क्या नष्ट हो जाये!
मेरा दृढ़ विश्वास है कि प्रकृति को बचाना है तो वृक्षारोपण उसका इलाज नहीं है। हमें जंगल में प्राकृतिक रूप से पुनर्जनन की परिस्थितियाँ पैदा करनी होंगी। प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ बंद करनी होगी, तभी जंगल में जो कुछ था वह अपने वास्तविक स्वरूप में फिर से उग आयेगा। पूरी प्रकृति पनपेगी, उसका एकाध अवयव नहीं। आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में जिस तरह विकास का लाभ कुछ गिने चुनों को ही मिल रहा है, वैसा प्रकृति के साथ नहीं होना चाहिये। जंगल को प्राकृतिक समग्रता में पनपाने के प्रयास कई स्थानों पर किये गये हैं और उनमें कल्पनातीत सफलता मिली है। मानव प्रकति के साथ सहजीवी की तरह ही रह सकता है। तानाशाह की तरह नहीं। यदि प्रकृति में मानव की लूटखसोट नियंत्रित कर दी जाये तो प्रकृति बेहतर पनपती है। वृक्षारोपण तो गंगा नहाने जैसा है। सारे पाप किये और गंगा में नहा लिये तो मान लिया जाता है कि पाप धुल गये। पर्यावरण को बर्बाद कर डालिये, प्रदूषण फैलाइये और फिर कहीं पर दो-चार पेड़ लगवा दीजिये। सारे पाप खत्म! वृक्षारोपण यदि समाधान होता तो पिछली आधी सदी में जितना वृक्षारोपण देश में हो गया है, उससे तो पर्यावरण की समस्या कब की खत्म हो चुकी होती! हवा स्वच्छ हो गयी होती, पानी प्रचुर मात्रा में होता, जंगली जानवर आबादी की ओर नहीं भाग रहे होते…..
तो अब मान भी लीजिये कि वृक्षारोपण एक धोखा है, शार्टकट है और कुल मिलाकर प्रकृति के साथ अत्याचार है। बहुत से बहुत वह शहरों व सड़कों के सूनेपन व रूखेपन को कम कर सकता है। प्रकृति को अपने नजरिये से नहीं, बल्कि प्रकृति के नजरिये से देखिये और महात्मा गांधी के उस कथन को याद कीजिये कि ‘प्रकृति सारे आदमियों की आवश्यताएँ पूरी कर सकती है, पर लालच एक का भी नहीं।’
पानी बिच मीन पियासी, खेतों बिच भूख उदासी
ये उलटबासियाँ नहीं कबीरा,खालिस चाल सियासी
बंगले में जंगला लग जाये,जंगल में बंगला लग जाये
वन-बिल ऐसा लागू होगा, मरें भले वनवासी
पानी बिच मीन पियासी,
– गिरदा