नवीन जोशी
आजकल मेरा पटना वास चल रहा है, जहाँ दफ्तरी कामकाज के बाद डेरे में मैं बिल्कुल अकेला होता हूँ। ऐसे में मन में बहुत कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता है। ‘पेटकुड़’ लगना जैसा। अक्सर वे लोग याद आने लगे जिनसे काफी कुछ सीखा और जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। याद आने के तरह-तरह के बहाने रहे। जनवरी की एक ठण्डी रात के सन्नाटे में बिल्कुल अचानक मेरे कानों में एक पहचानी आवाज में सम्मोहित कर देने वाला गायन गूँजने लगा- “सल्लाम वाले कुम. त्यारा वे गौड़ गाजिना, सल्लाम वाले कुम। म्यारा मियाँ रतना गाजी, सल्लाम वाले कुम. तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम…” गिर्दा अक्सर यह टेर छेड़ता था, लेकिन यह गिर्दा की आवाज नहीं थी। तभी मन की आँखों के सामने गाने वाले का चेहरा साफ हो आया। ओ हो, ये तो हमारे केशव अनुरागी की आवाज है। उसे भला कैसे भूला जा सकता है ? 1980 के आसपास कभी अनुरागी जी से भेंट हुई थी। वहीं आकाशवाणी, लखनऊ में जो अपना सांस्कृतिक स्कूल और अड्डा था। अनुरागी जी संगीत विभाग के पैक्स अर्थात कार्यक्रम अधिकारी बन कर आए थे। संगीत उनकी रग-रग में था, उनके हँसने और रोने में था। हां, सचमुच! वे इतना डूब कर गाते थे कि रोने लगते थे। धीरे-धीरे जाना मैंने कि गायन तो उनकी अद्वितीय प्रतिभा का अंश भर था। ‘ढोल सागर’ की उनकी समझ उल्लेखनीय थी। डा. शिवानन्द नौटियाल के शब्दों में ‘‘ढोल सागर ईश्वर-पार्वती-सम्वाद के रूप में लिखा गया ग्रंथ है। इस ग्रंथ के प्रथम भाग में सृष्टि की उत्पत्ति का विशद वर्णन मिलता है। दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पत्ति तथा उसे बजाने की कला का प्रभावशाली वर्णन है।’’ इस शास्त्र को जितना केशव अनुरागी ने समझा, उतना शायद और किसी ने नहीं। वे उस पर अपनी खास समझ के आधार पर काम करना चाहते थे, शोध। बस, वे सोचते ही रहे। तो भी एक काम उन्होंने ऐतिहासिक किया। कई गढ़वाली लोकगीतों की स्वर लिपियाँ बनाई और उनका लोक-शास्त्रीय अध्ययन किया। यह काम लोक को दस्तावेजी शास्त्र का दर्ज देने जैसा है। मैं उनके पीछे पड़ा रहता- ‘अनुरागी जी, अपना काम पूरा करिए। ढोल सागर पर काम होना ही चाहिए।’ वे गरदन हिलाते और ‘हां-हां’ कह कर टाल जाते। उनके मुँह में हमेशा ही पान का बीड़ा भरा रहता और अक्सर वे घुटकी भी लगाए रहते। मैं उनके घर जाने की जिद करता, वे टाल जाते, बहाना बनाते। एक बार मैं जिद करके उनके घर पहुँच गया। वे अत्यंत सादगी से रहते थे और खूब अव्यवस्थित भी। मेरी रट थी कि आप ढोल सागर पर लिखो, दिक्कत हो तो आप बोलो और मैं लिखता चलूँगा। मेरी जिद देख कर उन्होंने एक बक्से से निकाल कर करीब 40-50 पन्ने मुझे पकड़ा दिए, मुझे अपने घर से जल्दी चलता करने के लिए ही शायद। टाइप किए हुए पन्ने। घर आकर मैंने वे पन्ने पढ़े तो चकित रह गया। वह ढोल सागर के बारे में नहीं थे, लेकिन कई जगह उसका संदर्भ था। संगीत में मेरी कोई गति नहीं, लेकिन इतना तो समझ ही गया कि यह ऐतिहासिक महत्व का काम है। उन पन्नों में गढ़वाली लोकगीतों की स्वर लिपियाँ थीं, उनकी संरचना पर विद्वतापूर्ण टिप्पणियाँ, शास्त्रीय धुनों पर लोकधुनों का प्रभाव आदि-आदि। सामन्य नजर में भी यह बहुत बहुत महत्वपूर्ण किताब बनती लगती। मैं हर मुलाकात में यही रट लगाता कि इस काम को आगे बढ़ाइए, लेकिन वे टालने में माहिर। मैंने उन पर दवाब बनाने को ही उन पन्नों का एक छोटा हिस्सा ‘नैनीताल समाचार’ में छपवा दिया और साथ में टिप्पणी भी लिखी- ‘अपने बुजुर्गों को डाँट’। अनुरागी जी को दिखाया तो वे फीकी-सी हँसी हँस दिए। क्या उनके अंदर कोई कुंठा थी ? अनुरागी जी ने वह काम भी आगे नहीं बढ़ाया, हालाँकि उतना हिस्सा भी ठीक-ठाक किताब बनती थी। मैंने उसे छपवाने की कोशिश की लेकिन उस काम के कद्रदाँ ही कितने थे ? बाद में शिवानंद नौटियाल जी के प्रयास से उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी ने उस पुस्तक के प्रकाशन हेतु पाँच हजार रु. की सहायता दी और नौटियाल जी ने ‘विश्व प्रकाशन’ से इसे छपवाया। किताब का नाम अनुरागी जी ही का दिया हुआ रखा गया- ‘नाद नंदिनी’. उसकी भूमिका कुमार गंधर्व ने सन 1958 में बहुत गद्गद् हो कर लिख दी थी। इसका अर्थ हुआ कि अनुरागी जी ने ‘नाद नंदिनी’ की पांडुलिपि 1958 के पहले तैयार कर ली थी यानी 28-29 साल की उम्र में (उनका जन्म 13 जनवरी 1929 को पौड़ी गढ़वाल के ग्राम कुल्हाड़ में हुआ था)। इससे अनुरागी जी की विलक्षण प्रतिभा का पता चलता है। शिवानंद जी ने भी किताब में अनुरागी जी और उनकी प्रतिभा पर जानकारीपरक लेख लिखा। 1991 में अनुरागी जी ने इस पाण्डुलिपि में अपना ‘प्राक्कथन’ जोड़ा, जिसमें वे लिखते हैं- ‘‘लोक संगीत की स्वर-माधुरी जितनी अद्भुत है, उसकी ताल पद्धति उतनी ही विचित्र है. अतः पुस्तक के तृतीय अध्याय में मैंने गढ़वाली लोक-संगीत की ताल-पद्धति की विवेचना की है, साथ ही गढ़वाली लोक संगीत में उपयोग में आने वाली विशिष्ट प्राकृत तालों को समुचित बोल-बाँटों में प्रस्तुत किया है। इसी खंड में गढ़वाली लोक-वाद्यों के स्वरूप का विवरण भी प्रस्तुत किया है।’’ बहरहाल, 1958 में तैयार यह पाण्डुलिपि 38 साल बाद 1996 में छप सकी, लेकिन तब अनुरागी जी अपनी किताब को छपा देखने के लिए जीवित नहीं थे। यह है हमारे यहाँ साहित्य-संगीत-कला के असल जानकारों के काम की इज्जत और उनके सम्मान का हाल। पता नहीं ‘नाद-नंदिनी’ की कितनी प्रतियाँ छपी होंगी और कहाँ धूल खा रही होंगी। कुमार गंधर्व ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है- ‘‘मैने नाद-नंदिनी के कथ्य का तन्मयता से अनुशीलन किया है। इस श्लाघनीय रचना के माध्यम से लेखक ने पहाड़ की लोक-आत्मा के पावन संदेश को गढ़वाल की गिरि-कंदराओं में ही गूँजता न छोड़कर भारत के सुदूर कोनों तक भेजने का प्रयास किया है… मुझे आशा है कि नाद-नंदिनी का गढ़वाल ही क्यों, इतर प्रदेशों के जिज्ञासु जन भी हृदय से स्वागत करेंगे।’’ मगर आज इस किताब के बारे में और अनुरागी जी के बारे में उत्तराखण्ड ही में कितने लोग जानते हैं जबकि लोक संगीत के नाम पर कमाने-खाने का बड़ा धंधा उत्तराखण्ड और उसके बाहर भी खूब जोर-शोर से चल रहा है ? हाँ, अनुरागी जी में कुंठाएँ भी खूब थीं और उनका कारण हमारा यह समाज है। वे गढ़वाल के एक गरीब-दलित परिवार में जन्मे थे। बाजगी परिवार में, जिन्हें ढोल बजाने के लिए तो मंदिरों से लेकर घरों तक बुलाया जाता था, लेकिन उनके हिस्से में अनाज के कुछ दाने और अपमान व तिरस्कार ही आते थे। अनुरागी जी ने बचपन ही से इस अपमान के बदले ढोल को इस तरह बजाया कि उसे पी लिया, उसे घोट लिया, वे उसके तालों-स्वरों में समा गए। ढोल से उन्होंने मुहब्बत की और उसी से अपना विद्रोह भी गुंजायमान किया। मंगलेश डबराल ने उन पर जो बहुत मार्के की कविता लिखी है उसमें यूँ ही नहीं कहा है कि ‘केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है।’ ढोल के भीतर उनका अपना राज था, जहाँ कोई अपमान, कोई सामाजिक उपेक्षा और कटूक्तियाँ नहीं थीं। वहाँ सुरों, तालों और धुनों की परम मानवीय दुनिया थी। वहाँ सिर्फ संगीत था जो मनुष्यों में कोई भेद करना नहीं जानता। जब वे ‘उत्तरायण’ के पैक्स बनाए गए तो जिज्ञासु जी के आग्रह पर उन्होंने कुमाउनी-गढ़वाली गीत गाने वाली लड़कियों को लोक धुनें सिखाना शुरू किया। ‘ग्वीराला फूल फुलि गे मेरा भिना, ग्वीराला लयड़ी फुलि गे…’ गीत की मौलिक लोक धुन सिखाते-सिखाते वे खुद गाने लगते और जब लड़कियां सही स्वर पकड़ लेतीं तो वे हारमोनियम को ढोल बना लेते और रोने लगते। आँखों से जार-जार आँसू बहते। लड़कियाँ हँसने लगतीं तो वे उनके सिर में हौले से टीप मारते। उन दिनों ‘आंखर’ के कई कार्यक्रमों के लिए उन्होंने गायकों को रिहर्सल कराई और खुद भी मंच से गाया। लखनऊ में गढ़वालियों के पहले सांस्कृतिक संगठन ‘गढ़वाल संस्था’ के कार्यक्रमों में अनुरागी जी ने ढोल वादन की यादगार प्रस्तुतियाँ दी थीं। गाने का भी उनका निराला ढंग था। गजब होती थी उनकी तान, आरोह-अवरोह। क्या गला था उनका! जब वे गाते- ‘रिद्धि को सुमिरूं, सिद्धि को सुमिरों, सुमिरों शारदा माई…’ तो हवा थम जाती और उसमें अनुरागी जी के स्वरों की विविध लहरियाँ उठने-गिरने लगतीं। बायां हाथ कान में लगा कर वे दाहिने हाथ को दूर कहीं अंतरिक्ष की तरफ खींचते और चढ़ती तान के साथ खुली हथेली से चक्का-सा चलाते, गोया निर्वात में पेण्टिंग बना रहे हों। मंद्र सप्तक से स्वर उठा कर जाने कब वे तार सप्तक जा पहुँचते और वहाँ कुछ देर विचरण करने के बाद कब वापस मंद्र तक आ जाते, पता ही नहीं चलता था। तब वे अपने ढोल के भीतर होते थे और बाकी दुनिया बाहर…. वे हमारे कुमार गंधर्व थे। हाँ, सचमुच, वे देवास (मध्य प्रदेश) के उस महान गायक से कभी अनौपचारिक-सी दीक्षा ले आये थे लेकिन इस बारे में बात करने पर हंस देते थे। कुमार गंधर्व उनकी प्रतिभा से अच्छी तरह परिचित थे, यह तो ‘नाद नंदिनी’ की उनकी भूमिका ही से स्पष्ट है। गिर्दा जब कभी लखनऊ आते तो दोनों की गजब की छनती। सुर-ताल, गायकी और वाद्य के साथ ‘यही है हुसेनगंज का असली..’ यानी मधुशाला तक। ‘सल्लाम वाले कुम…’ का दीवाना था गिर्दा। बात-बात में टेर देता- ‘तेरी वो बीवी फातिमा…’ और अनुरागी जी ढोल के भीतर से गमकते- ‘सल्लाम वाले कुम.’ ‘‘सल्लाम’’गाने का उनका तरीका अनोखा ही था। कुछ वर्ष बाद अनुरागी जी प्रोन्नति पर आकाशवाणी, नजीबाबाद चले गए। उसके बाद एक-दो मुलाकातें ही हो पाईं। सुनता था कि उनकी घुटकियाँ बहुत बढ़ गईं थीं। फिर 1993 में एक दिन वे ढोल के भीतर ऐसे गए कि वहाँ से कभी वापस नहीं निकले। हाँ, बजाने वाला कायदे का हो तो ढोल आज भी अनुरागी जी के स्वर में गमकते हैं।