उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस : छोटे राज्यों के बड़े प्रश्न

“..लोकतंत्र में जनता की चेतना ही इस बात की एकमात्र कसौटी हो सकती है कि वह लोकतांत्रिक संस्थाओं का कितना लाभ ले सके। चेतना के अभाव की स्थिति में, कितने भी छोटे-छोटे राज्यों का निर्माण कर लिया जाए, समाज में पूर्ववत मौजूद वर्चस्व की विभिन्न श्रेणियां और संस्थाएं ही असल लाभ पाएंगी। उदाहरण के लिए, भाषा के आधार पर पृथक कर दिए जाने पर संभवत: नए राज्य में जातीय आधार पर एक नया वर्चस्व इसका लाभ उठाए।…”

फोटो साभार : BCCL

आज उत्तराखंड के जनमबार के दिन इस विषय पर फिर एक बार चर्चा मौजू हो जाती है कि भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में आज़ादी के बाद से ही लगातार उठने वाले छोटे राज्यों के विविध आंदोलनों को कैसे देखा जाए। भारत में राज्यों के पुनर्गठन का प्रश्न नया नहीं है। यह लगातार यक्ष प्रश्न बना रहा है कि आखिर इतने विविधतापूर्ण देश में राज्यों के पुनर्गठन का एक सर्व-स्वीकार्य और जायज तार्किक आधार क्या हो?

पिछले दिनों जिस गोरखालैंड की मांग ने पश्चिम बंगाल में राजनीतिक अस्थिरता ला दी थी यह भी एक नया विवाद नहीं है जबकि पृथक राज्य की मांग का यह देश का सबसे पुराना आंदोलन है। इसकी एक लंबी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।

भारत के विभिन्न इलाकों में लंबे समय से भाषाई, भौगोलिक, जातिगत, क्षेत्रफल, आबादी और विकास आदि के आधार पर अलग राज्यों की मांग उठती रही है। इनमें से तकरीबन आधा दर्जन मांगें आजादी के तुरंत बाद से ही उठनी शुरू हो गई थीं। आजादी से भी पहले, 1907 में पश्चिम बंगाल में गोरखा लोगों के लिए अलग क्षेत्र की मांग सबसे पहले उठी थी। उसके बाद देश भर में एक दर्जन से अधिक राज्यों के निर्माण के आंदोलन अस्तित्व में हैं। गोरखालैंड, बोडोलैंड, विदर्भ, कार्बी आंगलांग, पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, हरित प्रदेश और बुंदेलखंड आदि इसमें प्रमुख हैं।

गोरखालैंड और अन्य छोटे राज्यों की मांगों ने देश विभाजन के बाद अलग-अलग राज्यों के पुनर्गठन की 1956 में हुई सबसे बड़ी कवायद ‘राज्य पुनर्गठन अधिनियम’ को कठघरे में ला खड़ा किया। इसके तहत राज्यों की सीमाएं भाषाई आधार पर तय की जानी थीं। नतीजतन, भौगोलिक बसावट, क्षेत्रफल, विकास और आबादी के अलावा दूसरी सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थिति जैसे महत्त्वपूर्ण मसलों को महत्त्व नहीं दिया गया। इसकी प्रतिक्रिया में देश भर में, इन उपेक्षित आधारों पर छोटे-छोटे राज्य की मांग उभरी और उसने देश और संबंधित प्रदेश की राजनीति में एक गहरा असर डाला है।

यहां एक सवाल है कि पृथक राज्यों की मांग उठने का असल कारण क्या है? दरअसल, अलग-अलग जगहों से सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक और जातिगत आदि आधारों पर उठती दिख रही इन मांगों के पीछे इन आधारों पर हो रही इन तबकों की उपेक्षा ही मूल कारण है। अलग राज्य की मांग दरअसल इसी कारण से उभरती है कि वह विशेष समूह जो इस मांग को उठाता है, अपनी भाषा, संस्कृति, भूगोल या विकास के अवसरों आदि आधारों पर अपनी वर्तमान स्थिति में दमित है। उसे पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता या उसके पास सामान अवसर नहीं हैं।

भारतीय राज्य क्योंकि संवैधानिक तौर पर लोकतांत्रिक है, तो यह उसकी जिम्मेदारी का ही क्षेत्र है कि उपरोक्त आधार पर असमानता झेल रहे वर्गों के लिए वह ऐसी व्यवस्था करे कि उन्हें उनकी भाषा, सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषता, विशेष भौगोलिक स्थिति आदि विविध क्षेत्रों में विकास के समान अवसर मिल सकें। पृथक राज्य की मांग करने वाले समूहों का यह तर्क रहा है कि पृथक राज्य बन जाने से वे इसका स्वाभाविक हल पा लेंगे। राजनीतिक नेतृत्व में आ जाने से उन्हें इन क्षेत्रों में अवसरों की समानता के लिए किसी और का मोहताज नहीं रहना होगा। राज्यों के संबंध में भारतीय संवैधानिक स्थिति यह है कि राज्य, आपातकालीन स्थिति को छोड़ कर, पर्याप्त सक्षम हैं। वाकई इन समूहों का तर्क इस आधार पर जायज है और नए राज्यों का अस्तिव हाशिये के इन समूहों का स्वाभाविक तौर पर सबलीकरण करेगा।

उपरोक्त विभिन्न आधारों पर पृथक राज्यों की मांग के जायज होने के इस तर्क के बाद, 2000 में अस्तित्व में आए तीन नए राज्यों के हमारे अनुभव क्या हैं, इसकी पड़ताल भी जरूरी है। उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड, ये तीनों राज्य भी गहरे जन-आंदोलनों के ही गर्भ से उपजे हैं। लेकिन आज तीनों राज्यों का जो हाल है उससे आंदोलनों से इनकी पैदाइश का कोई रिश्ता समझ नहीं आता। चाहे जिस भी पवित्र एजेंडे के साथ राज्य-आंदोलन चले हों लेकिन राज्य-प्राप्ति के बाद राज्यों का नेतृत्व जिन हाथों में आया है उन्होंने तकरीबन उन सारे एजेंडों को पराभव की तरफ धकेला है। और आज का परिदृश्य तो कुछ और ही कहता लगता है। जैसे, ये तीनों राज्य इसलिए अस्तित्व में आए कि यहां की प्राकृतिक संपदा की लूट आसान हो सके। इन राज्यों के अब तक के अनुभव यही कहते हैं। यहां सरकारों और कंपनियों के गठजोड़ ने प्राकृतिक संसाधनों को बेतहाशा लूटा है। और इस लूट के लिए जनता को उसके जल, जंगल, जमीन पर अधिकारों से बेदखल किया है।

हम अगर इसी आलोक में गोरखालैंड को देखें, तो सवाल यह है कि प्राकृतिक संसाधनों को कॉरपोरेट लूट के लिए प्रस्तुत करने का सरकारों का जो रवैया रहा है, क्या वह अलग राज्य बनने पर गोरखालैंड में बदल जाएगा? यहां प्राकृतिक संसाधन किस तरह उपयोग में लाए जाएंगे? इन संसाधनों के संबंध में जनता के अधिकार और उसकी भागीदारी क्या होगी?

वर्ष 2000 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड का उदहारण लें। उत्तराखंड के प्राकृतिक संसाधनों में नदियों में बहता पानी प्रमुख है। नए राज्य के गठन के बाद सरकारों ने पानी से जुड़े उद्योग उत्तराखंड में स्थापित कर प्रदेश को ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाने की कवायद शुरू की। इसके लिए 558 जल विद्युत परियोजनाओं का खाका तैयार किया गया ताकि प्रदेश में ‘हाइड्रो डॉलर’ की बरसात हो। इन्हीं परियोजनाओं में से एक का उदाहरण यहां मौजूं है।

टिहरी के विशाल बांध से तो सभी परिचित हैं। लेकिन इसी जिले के फलिंडा गांव में भी इस महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत एक साढ़े ग्यारह मेगावाट की परियोजना शुरू की गई थी। यह परियोजना जब प्रस्तावित हुई तो साढ़े ग्यारह मेगावाट की परियोजना के हिसाब से इसकी पर्यावरणीय आंकलन रिपोर्ट बनाई गई थी। शुरू से ही परियोजना के खिलाफ गांव वाले प्रतिरोध करते रहे, फलिंडा के तकरीबन हर ग्रामीण को जेल जाना पड़ा।

लेकिन कंपनी ने कई स्तरों पर दबाव डलवा कर शासन-प्रशासन से एक समझौते पर गांव वालों को विवश कर दिया, जिसके तहत फलिंडा में बांध बनना शुरू हुआ। कंपनी ने जिस परियोजना को 11.5 मेगावाट के लक्ष्य के साथ शुरू किया था, अचानक पर्यावरणीय आकलन रिपोर्ट और पर्यावरणीय मंजूरी के बगैर ही उसका लक्ष्य बढ़ा कर 22 मेगावाट कर दिया गया। डूब में आने वाले उपजाऊ खेतों का दायरा इससे और बढ़ गया और नीचे के खेत सुरंग में मोड़ दी गई नदी के चलते सूख गए।

बांधों के बारे में अति प्रचारित लेकिन असल में भ्रामक तथ्य है कि बांध क्षेत्रीय लोगों के लिए रोजगार भी लाते हैं। फलिंडा का उदाहरण है कि आज वहां के महज पांच ग्रामीणों को पांच हजार से लेकर नौ हजार रुपए की तनख्वाह पर कंपनी ने रोजगार दिया है। इसके अलावा समझौते के आधार पर, कंपनी सालाना डेढ़ लाख रुपया गांव को देती है। यानी मासिक तौर पर कंपनी द्वारा कुल गांव को हुई आय 47,500 रुपए है। जबकि कंपनी का मासिक मुनाफा एक अनुमान के अनुसार 4 करोड़ 40 लाख रुपए है। यानी पहाड़ के गांवों के प्राकृतिक संसाधनों में इतनी क्षमता है कि वे महीने के चार करोड़ से ऊपर मुनाफा कमा सकते हैं। चूंकि पृथक राज्य के साथ स्वावलंबी विकास का सपना था तो जाहिरा तौर पर इस परियोजना के मालिक स्थानीय ग्रामीण भी हो सकते थे।

इसका मुनाफा उस गांव की तस्वीर बदल देता। और ऐसी परियोजनाएं पूरे राज्य की भी तस्वीर बदल देतीं। सरकार को ऐसे अवसर मुहैया कराने थे। लेकिन इसके अभाव में ग्रामीणों के पास पलायन के सिवा कोई विकल्प नहीं बच रहा है।

फलिंडा में ग्रामीणों से उनकी खेती छीन ली गई, उनकी नदी छीन ली गई। प्रतिरोध करने पर प्रशासन ने उन्हें जेलों में ठूंसा। और इसके एवज में उन्हें क्या मिला और एक निजी कंपनी को क्या, यह सामने है। यह अकेले उत्तराखंड का नहीं, झारखंड और छत्तीसगढ़ का भी यही हाल है। और समूचा देश ही दरअसल सरकार और कॉरपोरेट के इस गठजोड़ और लूट का शिकार है। बहुत संभव है कि तेलंगाना भी इन्हीं अनुभवों से गुजरेगा।

लोकतंत्र में जनता की चेतना ही इस बात की एकमात्र कसौटी हो सकती है कि वह लोकतांत्रिक संस्थाओं का कितना लाभ ले सके। चेतना के अभाव की स्थिति में, कितने भी छोटे-छोटे राज्यों का निर्माण कर लिया जाए, समाज में पूर्ववत मौजूद वर्चस्व की विभिन्न श्रेणियां और संस्थाएं ही असल लाभ पाएंगी। उदाहरण के लिए, भाषा के आधार पर पृथक कर दिए जाने पर संभवत: नए राज्य में जातीय आधार पर एक नया वर्चस्व इसका लाभ उठाए।

इसलिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण सवाल है कि पृथक राज्यों की जायज मांग कर रही आंदोलनकारी ताकतें अपने समाज में असल जनतांत्रिक चेतना के प्रसार और मूल्यों को स्थापित करने के लिए कितनी प्रयासरत हैं? और इसके प्रसार के लिए उनके पास क्या एजेंडा है? जबकि उन्हें इसके लिए सिर्फ प्रयासरत रहना नहीं बल्कि इन्हें स्थापित करना है। पृथक राज्य के वास्तविक लाभ के लिए इसके इतर कोई विकल्प नहीं है। इसलिए उत्तराखंड और अन्य नए राज्यों में भी जनता की चेतना को लोकतान्त्रिक दिशा में ले जाने के लिए प्रयास करना ही विवेकवान कार्यकर्ताओं के लिए अगला लक्ष्य होना चाहिए।

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