रामेश्वर के साथ राम का गुरुकुल भी डूबेगा

 

लेखक : मदन चन्द्र भट्ट

पंचेश्वर बाँध से सरयू और रामगंगा के संगम पर स्थित रामेश्वर मन्दिर ही नहीं डूबेगा, वरन् वैदिक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र प्राचीन वशिष्ठाश्रम भी समाप्त हो जायेगा और उससे जुडे़ लोगों की आजीविका जाती रहेगी। रामेश्वर भगवान राम का गुरुकुल होने के साथ ही वृद्धावस्था में उनका निर्वाणास्थल भी रहा है। इसी कारण हरिद्वार की तरह तीर्थ भी माना जाता है। यह सोर, गंगोली ओर बारकोट के गाँवों का युगों से श्मशान, क्रिया स्थल, श्रद्धा स्थल और व्रतबन्ध स्थल रहा है। देव डाँगरों के लिए यह आवश्यक है कि वे शरीर में देवी-देवता के अवतरण से पूर्व रामेश्वर में संगम में स्नान करें।

रामेश्वर कैलाश-मानसरोवर  की तीर्थयात्रा का 1960 ई. तक एक पड़ाव था। यात्री कई दिन तक यहाँ की धर्मशालाओं में पड़े रहते थे। यहाँ के महंत का शंकराचार्य के जूना अखाडे़ से सम्बन्धित होने के कारण इस अखाडे़ के सारे संन्यासी यहाँ निःशुल्क भोजन पाते थे। मन्दिर में ‘भोज‘ की परम्परा थी। बदरीनाथ की तरह तीर्थयात्रियों को पका हुआ भोजन मिलता था। उस समय तीर्थयात्री एक बार अन्न ग्रहण करते थे, बाकी फल, दूध आर मिठाई खाते थे। कैलास का यात्रापथ ‘उत्तरपथ‘ अथवा ‘हेमवत् पथ‘ कहलाता था। स्मृति चिन्ह धर्मशाले, नौले, कठपातिया, गुफायें, पीपल और शिलंग के पेड़ आज भी रामेश्वर से पिथौरागढ़ तक दस किमी. के पैदल मार्ग में विद्यमान हैं। राम-सीता की कैलास यात्रा के अलावा भीमपानी और अर्जुनेश्वर में पाण्डवों की कैलास-यात्रा की स्मृति जीवित है।

रामेश्वर की व्यवस्था के लिए प्राचीन काल से ही ‘वैराज्य‘ (राजाओं को न मानने वाली) परम्परा की एक संस्था थी, जिसे ‘गुग्गुलि परिषद‘ कहा जाता था। ‘गुग्गुलि‘ का अर्थ  ‘प्रवर‘ है,  प्रत्येक कुल में तीन अथवा पाँच प्रवर की परम्परा रही है। ये ही मन्दिर समिति के सदस्य होते थे। मन्दिर समिति में 1960 ई. में बिशाड़ गाँव के भट्ट ब्राह्मण आचार्य, जीवी गाँव के कुमूपति चन्द्र कर्माधीश, मेलडुङरी के जोशी पुजारी तथा जाख चमडुङरा के गिरी लोग महंत का कार्य करते थे। बिशाड़ गाँव के भट्ट बदरीनाथ के रावल की तरह विश्वामित्र गोत्रीय, यजुर्वेदी, माध्यन्दिन् शाखी (मध्यान्ह में भी स्नान करने वाले) तथा पुरुषसूक्त को मानने वाले वैष्णव हैं। ये पिथौरागढ़ नगर के समीप पाँच गाँवों में रहते हैं- बिशाड़, जाख का बड़गूँ, पनेर भट्यूड,़ तोली बाँस और कोटला। इनका मुख्य व्यवसाय रावल और वल्दिया पट्टी के जजमानों के लड़कों का रामेश्वर मन्दिर में व्रतबन्ध कराना, मन्दिर में श्रद्धालुओं की ओर से ‘खडं़ग‘ (वेद) का पाठ करना तथा मन्दिर में पूजा कराना है। रामेश्वर मन्दिर में इस गाँव के दो धर्मशाला हैं जिनमें माघ के महिने में ‘तिरमाघी‘ करने के लिए गाँव की औरतें रहती है। मन्दिर से सटा हुआ दुमंजिला धर्मशाला आचार्य का आवास रहा है। इसी में भागवत पुराण का आयोजन ‘सप्ताह‘ नाम से किया जाता है।

मेरी दादी श्रीमती कमलादेवी बिशाड़ से जाकर माघ के महीने में रामेश्वर में रहती थीं। एक बार भोजन, दो बार स्नान और रात में बारह बजे तक कीर्तन का रिवाज था। माघ पूर्णिमा के बाद ‘बमन्यू‘ की जाती थी, जिसमें बौतड़ी, खुरी, राड़ी और सेरा के समस्त स्त्री-पुरुषों को भोजन कराया जाता था। उस दिन बिशाड़ गाँव के मल्लघर मुहल्ले के सभी पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे सात किमी. का पैदल मार्ग तय कर रामेश्वर जाते थे। रामेश्वर जाने के लिए दो मार्ग थे- एक थली का और दूसरा मारुड़ी का। मारुड़ी अर्थात् भारद्वाज आश्रम के मार्ग से राम अपने विवाह के बाद सीता को लेकर गये थे। अतः वह मार्ग पवित्र माना जाता था।

बिशाड़ गाँव में चार राठें हैं- गणेश ज्यू राठ, अनन्त ज्यू राठ, भास्कर ज्यू राठ और नारद ज्यू राठ। गणेश ज्यू राठ में जो सबसे वृद्ध व्यक्ति होता है वह गाँव का ‘कर्माधीश‘ कहलाता है। कर्माधीश रक्षाबन्धन, होली और रामलीला का व्यस्थापक माना जाता है। जो बिशाड़ बाँव का कर्माधीश हो, जाख केंनी का पधान हो, वही रामेश्वर मन्दिर का आचार्य बनता है। उसका मुख्य व्यवसाय वैदिक, पौराणिक, ज्योतिष और कर्मकाण्ड के ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ तैयार करना था। ग्रीष्मकाल में कैलास यात्री उन पाण्डुलिपियों, पहाड़ी कागज और खैर की स्याही को खरीद ले जाते थे।

स्कन्दपुराण के मानसखण्ड में आज से लगभग 22 सौ वर्ष पहले का वशिष्ठाश्रम का वर्णन दिया हुआ है। उसके अनुसार अयोध्या के राजा इक्ष्वाकु हिमालय में राजकुमारों को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देने के लिए गुरुकुल बनाना चाहते थे। इसी कारण पुष्कर जाकर वे ब्रह्मा के बेटे वशिष्ठ को ले आये। वशिष्ठ ने उद्गम से अयोध्या तक सरयू नदी का सर्वेक्षण किया और रामेश्वर के समीप बौतड़ी, खुरी और सेरा के उर्वर खेत उन्हें पंसद आये। सर्वेक्षण के दौरान उन्हें वहाँ पर शिला में विष्णु के चरण चिन्ह मिले। वशिष्ठाश्रम का वर्णन महाभारत और रघुवंश में भी है। महाभारत के अनुसार एक बार कैलास यात्रा के लिए कन्नौज के राजा विश्वामित्र सेना सहित वशिष्ठाश्रम में आये। उन्हें वशिष्ठ ऋषि की गाय ‘नन्दिनी‘ पसन्द आ गई। जब वशिष्ठ गाय देने के लिए तैयार नहीं हुए तो विश्वामित्र के सैनिक बलपूर्वक उस गाय को ले जाने लगे। सूचना पाकर आस पास रहने वाली ‘खश‘ जाति ने विश्वामित्र में सैनिकों पर पत्थर वर्षा कर उसे नष्ट कर दिया। विश्वामित्र भाग कर अल्मोड़ा के समीप पाटिया के बमसर (प्राचीन ब्रह्मेश्वर) चले गये जहाँ कोशी नदी के किनारे उन की बहन सत्यवती (ऋचीक ऋषि की पत्नी) अपने तीन पुत्र-जमदग्नि, देवरात और भुनपुच्छ के साथ रहती थी। रघुवंश में कालिदास ने अयोध्या के राजा दलीप द्वारा नन्दिनी की सेवा का वर्णन किया है जिससे उन्हें ‘रघु‘ जैसा पुत्र प्राप्त हुआ।

Leave a Reply