हरिश्चन्द्र चंदोला
उत्तराखण्ड राज्य कुल कितनी जल-विद्युत बनाता है उसके पूरे आंकडे उपलब्ध नहीं है। उत्तराखंड के श्रीनगर बांध से कितनी बिजली बनती है, उसका भी ज्ञान नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व वह हिमालस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों के पानी से बिजली बनाने के प्रयास में लगा था।
जोशीमठ नगर के 10 किलोमीटर नीचे विष्णुप्रयाग में धौली गंगा तथा अलकनंदा संगम पर वह 400 किलोवाट बिजली उत्पन्न करता है, जो पूरी-की-पूरी राज्य से बाहर भेजी जाती है, उसका सिर्फ 12 प्रतिशत भाग राज्य के लिए इस्तेमाल होता है। इसे लेजाने-लाने में बहुत सी बिजली व्यर्थ खर्च होती है। अच्छा यह होता कि यह बिजली विष्णुप्रयाग से सीधे उत्तराखंण्ड राज्य को दे दी जाती और फिर बांकी बिजली बाहर भेजी जाती।
राज्य की अपनी कितनी बिजली की आवश्यकता है, उसका भी अनुमान नहीं है। राज्य की अधिकतम जल-ऊर्जा बाहर भेजी जाती है इसलिये अपने उपयोग मे बहुत कम ऊर्जा लाई जाती है, नतिजतन राज्य के अधिकतम गांव तथा रास्ते अंधकार में डूबे रहते है। अभी वहां नंदादेवी पर्वत से आने वाले पानी से देश की नेशनल थर्मल पावर कोर्पोरेशन इस क्षेत्र में जन-विद्युत बनाने का काम कर रही थी। 7 फरवरी को पानी लाने वाली एक हिमानी रेणी गांव के ऊपर टूट गई जिससे नीचे सुरंग में काम कर रहे 250 मजदूर मलबे में दब कर मर गए। कइयों के शरीर अभी भी वहीं पडे हैं और निकाले नहीं गए।
उत्तराखण्ड राज्य में ऐसे कोई कारखाने नहीं है, जिसे चलाने के लिए बिजली की आवश्कता हो। यह राज्य कृषि करता है, जिसके लिए बिजली की आवश्यकता नहीं होती। क्योकि राज्य देश की बड़ी-छोटी नदियों का उद्गम स्थल है इसलिए सोचा गया कि क्यों न उनके जल से बिजली बनाई जाय ? इसलिये एक समय उसमें 200 से अधिक जल-विद्युत लाने की योजनाएं बन रही थी।
बिजली बनाने का काम सबसे अधिक लाभदायक होता है। बिजली पानी से बनती है, जिसका कोई मूल्य नहीं देना पड़ता, खर्चा केवल मशीनों तथा मजदूरों के वेतन पर होता है। जल-विद्युत बनाने में कमाई ही कमाई है। इसलिए यहां जल-विद्युत बनाने हजारों कंपनियां आने का प्रयास करने लगी। कइयों को काम करने के आदेश भी मिल गए फिर खबर उड़ी कि इस काम का ठेका पाने के लिये मंत्री-अधिकारी वर्ग को बहुत धन दिया गया और उस भृष्टाचार के विरुद्ध बहुत प्रतिक्रिया हुई। एक पूर्व मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि यदि वे राजनिति में लौटे तो सबसे पहले इस जल-घोटाले पर सवाल उठाऐंगे।
जिन मंत्री महोदय ने कंपनियों को जल-विद्युत बनाने के परमिट दिए थे उन्होंने उन सब को निरस्त कर दिया और घोटाला शांत हो गया। जल-विद्युत बनाने के काम पर कुछ ही कंपनिया रह गई। पछले वर्षो में राज्य के कितनी बिजली बनाई फिलहाल उसके भी आंकडे नहीं हैं। जितना उत्पादन राज्य का है, उसका कितना भाग बाहर ले जाया और बेचा जाता है उसके भी आंकडे नहीं हैं।
यही स्थिति राज्य के अन्य संसाधनों की है। पहाड़ी राज्य में वनों की अधिकता है। यहाँ की लकड़ी हरिद्वार में बेची जाती है। सरकार ने किस जगह पहाड़ से लाई लकड़ियों के अंबार लगाए, जिनका समय-समय उनके नीलाम किया जाता है जिसे लकड़ी की आवश्यकता होती है। स्थिति यह हैं कि पहाड़ में जिसे मकान बनाने या अन्य काम के लिए लकड़ी चाहिए हो उसे हरिद्वार के पास आ नीलाम में बोली लगानी होती है, और तब वह लकड़ी खरीद सकता हैं स्थिति यह हैं कि पहाड़ का उत्पाद पहाड़ में उपलब्ध नहीं है। यही बात फलों की है। मैदानी व्यापारी आ कर पहाड़ के सेब, नाशपाती, अखरोट इत्यादि खरीदकर ले जाते है और तब उनको देहरादून, हरिद्वार इत्यादि शहरों से बेचते है।
पहाड़ में मंड़ियों का विकास नही हुआ। उसकी आर्थिकी कैसे प्रगति करेगी। काले दाने का अन्न, मंडुवा पहाड में अच्छा उपजाता है। मड़ी न होने से उसके लिए ग्राहक नहीं मिलते। वह उगाने वालों के पास ही पड़ा रह जाता है।