इस्लाम हुसैन
मीडिया में फ्रिंज एलीमेंट्स ने जिस तरह का सामाजिक विभेद का माहौल बनाया हुआ है वैसा माहौल उत्तराखंड में चली 40 दिन की राष्ट्रीय सद्भावना यात्रा में कहीं नहीं दिखाई दिया। उत्तराखंडी समाज में अभी भी सद्भावना और समरसता की धारा मौजूद है।
लेकिन हां सोशल मीडिया के दौर में समाज में हर स्तर पर संवाद की कमी हुई है, जातीय और धार्मिक समूहों में आपसी संवाद कम हुआ है। गांव में जातीय भेदभाव बना हुआ है, पर शहरों और कस्बों में सार्वजनिक रूप से जातीय भेदभाव कम हुआ है। संवादहीनता और सामाजिक जड़ता के कारण भ्रम पूर्वाग्रह और गलत जानकारियां फैल रही हैं।
इस सफल सद्भावना यात्रा से यह भी सिद्ध हुआ है कि यदि समाज में सकारात्मक सोच के साथ सद्भावना जैसे मुद्दे पर अभियान चलाया जाए तो नकारात्मक सोच के फ्रिंज एलीमेंट्स के कुप्रचार के हौव्वे का मुकाबला किया जा सकता है।
उत्तराखंड के करीब 80 गांवों, बाजारों, कस्बों, और शहरों से अपना संदेश देने वाली यह सद्भावना यात्रा 8 मई को हल्द्वानी से आरंभ होकर 21 जून को को देहरादून में ख़त्म हुई।
इस यात्रा ने जहां अनेक मिथक तोड़े तो वहीं यात्रीदल को जमीनी हक़ीक़त से भी रूबरू कराया। यात्रा में शामिल हर यात्री के लिए यात्रा से अलग अलग तरह के अनुभव मिले जोकि पूर्वधारणाओं के विपरित भी रहे।
अगर भौगौलिक दृष्टि से सद्भावना यात्रा में लगे समय को बांटे तो 40 दिन की इस यात्रा में आधा समय कुमाऊं मंडल में लगा और आधा समय गढ़वाल मंडल में लगा, यात्रा की तैयारी और व्यवस्थाएं जहां कुमाऊं में हुईं तो उसका समापन गढ़वाल मंडल में हुआ। यह भी महसूस हुआ कि यात्रा का 40 दिन का समय भले ही अधिक लग रहा हो, लेकिन पूरे उत्तराखंड को और गहराई से समझने के लिए यह 40 दिन का समय कम था।
यात्रा के दौरान अनेक मामलों में स्थिति भयावह दिखी तो कहीं आशा की किरणें भी दिखीं सामाजिक एकजुटता और ऐक्शन भी दिखा और व्यवस्था की काहिली और लोगों का आक्रोश भी दिखाई दिया। कुल मिलाकर यह यात्रा उत्तराखंड के मौजूदा हालात को एक सिरे से देखती और समझती चली गई।
यात्रा के दौरान देश और राजनीति पर जो चल रहा था उसपर जनसामान्य ने अलग अलग तरह की टिप्पणियां तो कीं लेकिन यात्री दल ने अपनी ओर से इस तरह की बात करने में परहेज किया ताकि मुद्दों पर बातचीत करते हुए भटकाव ना हो।
कुली बेगार प्रथा के 100 साल पूरे होने और आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर, उत्तराखंड के जननायकों ने जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर अब तक अनेक समाज सुधार के आंदोलन किए या जनमुद्दों से चेतना फैलाई थी उन जननायकों के माध्यम से जनसामान्य से संवाद स्थापित करने की कोशिश इस यात्रा में की गई। यात्रा ने उत्तराखंड के मुद्दों और सवालों को फिर से जानने और समझने का मौका दिया है। इस नज़रिए से यात्रा सौ प्रतिशत कामयाब रही है।
यात्रा में जिन जननायकों का का ज़िक्र बार बार आया उनमें वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम प्रमुख है, लोगों ने गढ़वाल के दूरस्थ क्षेत्र में रहने वाले और ब्रिटिश सेना के इस फौजी की इंसानियत के लिए की गई कुर्बानी को बहुत याद किया। धार्मिक संकीर्णता से परे विशुद्ध मानवीय मूल्यों और इंसानियत की ख़ातिर वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने जिस तरह पेशावर के किस्साख्वानी बाजार में निहत्थे आंदोलनकारी पठानों पर गोली चलाने से इंकार किया था उसे लोगों ने भविष्य के लिए भी एक मिसाल बताया था और कहा कि समाजिक सद्भावना के लिए वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का यह कारनामा हमारे समाज को प्रेरणा देने का काम करता रहेगा।
यात्रा के दौरान पहाड़ में समस्या ही नहीं दिखी समस्याओं के पहाड़ दिखे, ऐसे पहाड़ जिसको समझने जानने और समतलीकरण के कहीं से कोई प्रयास नहीं हो रहे हैं। पिछले चालीस सालों से विशेषकर उत्तराखंड बनने के बाद भी जल, जंगल जमीन,जन और जानवर जैसे मुद्दों पर चर्चाएं हो रही हैं, लेकिन उनके समाधान पर अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो पाई है। ले देकर सरकार एक योजना बनाती है फिर उसकी असफलता के बाद उसी तरह की दूसरी योजना बन जाती है।
एक गम्भीर स्थिति पहाड़ के मुद्दों पर बोलने वालों की अनुपस्थिति भी दिखीं, लोगों ने पहाड़ के मुद्दों पर या तो बोलना छोड़ दिया है या फिर समझ कम हो गई है। समस्या का सामान्यीकरण भी इसके लिए जिम्मेदार दिखा है, उदाहरण के लिए पलायन दिख रहा है लेकिन अब इसे नियति मान लिया गया है। यही हाल स्वास्थ्य और शिक्षा का है, शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य की सुविधा के लिए लोगों ने बोलना कम कर दिया और गांवों से निकट के कस्बों शहरों में बसना शुरू कर दिया है, जिससे दोहरी तिहरी समस्याएं उठ खड़ी हुई है। गांव और खेत उजाड़ और बंजर हुए तो दूसरी ओर कस्बों में आबादी घनी हो गई। नदी गधेरों के किनारे और कस्बों में बेतरतीब भवन निर्माण से पर्यावरण और आपदाओं के खतरे बढ़ गए इसके साथ गांव में जो आबादी उत्पादक थी वो अब कस्बों शहरों में अनुत्पादक और दूसरों पर निर्भर हो गई है।
इस सद्भावना यात्रा में वर्तमान भूमि कानून के दुरुपयोग के बड़े उदाहरण भी देखने को मिले हैं, जहां होटल को उद्योग बनकार पहाड़ में अनियंत्रित दैत्याकार जैसे भवन निर्माण की खुली छूट मिल गई है, वहीं सौर उर्जा के नाम पर भूमि की खुली लूट चल गई है। हालिया दिनों में नैनीताल के रामगढ़ मुक्तेश्वर इलाके में पर्यटन के नाम से हुए निर्माण ने गम्भीर आपदा को आमंत्रित कर दिया है। गम्भीर चिंता की बात यह है कि यह सब विकास के नाम पर हो रहा है, यह बात दूसरी है कि इस भूमि विक्रय के इस खेल से करीब 200 वर्ग किलोमीटर की रामगढ फल पट्टी सिकुड़ रही है, जिसके कारण बागबानी और लघु कृषि पर निर्भर ग्रामीणों की आजीविका पर संकट बढ़ गया है। उत्तराखंड के देहरादून जिले में भी यही हालात हैं, मसूरी धनौल्टी में इलाके पर्यटन की विद्रूपताओं और स्थानीय निवासियों का चैन छीनने के लिए कुख्यात होते जा रहे हैं।
गढ़वाल में खासकर उत्तरकाशी में सौर ऊर्जा का सापेक्ष रूप से कम लागत का प्लांट लगाकर कई गुना कीमती जमीन कानूनी तरीके से कब्जाई गई है। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि भविष्य में भी यह भूमि सौर ऊर्जा के लिए ही उपयोग में आएगी।
जैसे जैसे पर्यटन बढ़ रहा है उससे जुड़ी समस्याएं भी बढ़ रही हैं उनके निदान पर रीति नीति के अभाव से पर्यटन कहीं पहाड़ को निगल न लें, यह आशंका प्रकट की जा रही है है। शहरों, गांवों के रास्तों, गाड़ गधेरों और छोटे छोटे बाजारों में प्लास्टिक कचरे के बढ़ते हुए ढेर तो बस सरकारी कार्यशैली की बानगी भर है।