गजेंद्र नौटियाल
आदमी नहीं हैं-घर नल तो है पर उसमें पिछले कई दिनों से पानी नहीं है. भैजी जानते हो क्यों? क्योंकि पानी जिस जंगल के स्रोत से आता है वहां अकेले जा नहीं सकते। मैंने यूंही सलाह दी अरे दो तीन लोग चले जाते, इसमें बड़ी बात क्या है! वह हत्थे से उखड़ गया बोला भाई आदमी ही तो नहीं हैं। वो एक प्रधान है, उसका भाई है दोनों बिजनिस हैं ठेट घनशाली बाजार में और बाकी गांव में एक लाला है, कुछ बुड्ढे हैं बाकी नौजवान हैं और कुछ औरतें! मैंने कहा और भी तो हैं गांव मे उसने कहा हां दो चार मजदूर हैं पर उनको तो मजदूरी चाहिए ना। मैं समझ गया ‘‘आदमी नहीं है’’ का मतलब। खैर मैने कहा भाई चल कल सुबह चलते हैं, होली मनाने आया हूं बिना पानी के तो सब होगा नहीं। वो हंसा, हां तभी तो कहा आदमी नहीं हैं भैजी, सबको पानी चाहिए, हर घर पर नल तो लोगों ने कई साल पहले लगा लिए थे पर हर घर जल वो बड़े नेता के बोलने पर भी नहीं पंहुचा।
दूसरे दिन हम दोनों भगीरथ को याद करते हुए -रोटी, साकिना की सब्जी और एक थर्मस पर चाय पिठ्ठू पर लादे हाथ में हथियार लेकर 3 किलोमीटर घने जंगल पार कर स्रोत पर पंहुंच ही गए। इस जंगल के‘‘ग्वर बाठा’’-जानवरों का जंगल जाने का रास्ता जिसे इन्सान भी प्रयोग करते हैं उसके साथ ही पाइप लाइन को बिछाया गया था ताकि आसानी से स्रोत तक आना-जाना और मरम्मत काम हो सके पर आज न गोरु जंगल जाते हैं न ये रास्ता आबाद मिला। कहीं पर बास्या और लालटेना की घनी झाड़ी, कहीं तुंगला, आंवला, हरड़ा, बहेड़ा, सांदंण,ग्वीरियाल, धौला और चीड़ के पड़, तो कहीं पर कुंजू कळहिंसर के कंटीली झाड़ी। इस साल चीड़ से ‘‘होली‘‘ की पीली रंगत हर पेड़-पौधे और घास पर पसरी थी तो हमारे कपड़े, पिठु, हथियार और चेहरे पर पीलिमां पसरती गई थी जिसका एहसास हमें स्रोत पर जाकर एक दूसरे को देखने पर हुआ। एक घंटे मशक्कत के बाद पानी चैंम्बर तक पंहुचा पर आगे नल पर नहीं बढ़ सका। नलों को ठोका-पीटा तकनीक भाई ने अपनाई तो उनके अंदर जमी मिट्टी की काई जो बिना पानी के अंदर ही सूख गई थी और पानी से अब पिघल रही थी उसने अपने चिपके रहने की जिद्द छोड़ दी थी और भारी मटमैले पानी के रुप में डेढ़ किलो मीटर दूर स्टोरेज टैंक तक पंहुच ही गई थी।
अभी दूसरा स्रोत है भाई! मैने कहा क्यों इतना पानी तो बहुत है। फिर वही गुस्सा भाई तिलमिलाते हुए बोला गरमी आ रही हैं दोनो स्रोत से पानी लगा रहेगा तो काम आयेगा, वैसे भी छानियों वाला पानी वहीं से जाता है। कभी 6 महिने की प्रवास रही ये छानियां अब खेतों के साथ ही जंगलों में बदल गई हैं पर घस्यारी यहां पानी पी लेती हैं, प्रत्येक घर पर नल-जल की यहां भी ब्यवस्था तो होनी चाहिए न भैजी। पहली बार अपनी ही बात पर वो खिलखिला कर हंसा था। फिर से चढ़ाई में चीड़ के पराग की होली चिपकती रही जो कपड़े-हथियार साफ किए थे वो फिर से पीलिमा पा गए थे। दूसरे स्रोत पर भी वही सफाई, जंगली जानवरों के पैरों से काफी मिट्टी घास और कचरा चैंबर वाली नाली पर जमा था। दोनों स्रोत जलप्रपात से होकर आते हैं और तीनो ओर से सीधे खड़े पहाड़ों के बीच पानी की धार की आवाजें उस सुनसान जंगल में अजीब सा शोर करते हैं जो चीड़ के पेड़ों पर तेज हवा की सरसराहट से और भी डरावना महसूस कराते हैं। चैम्बर में भी वही पहले जैसे कचरा-मलबा साफ करना और नल की ठोक-पिटाई तकनीक के बाद अब हम भूख-प्यास से पस्त थे। बुरांस के फूल निकाले और तिमले के पत्ते बिछा कर धर से लाए प्याज के पत्ते और नमक मिला कर रैमोड़ी बनाई, साकिना की सूखी सब्जी और रोटियों को खाने का भरपूर आनंद डकार आने तक बिना आवाज लेते रहे। गांव आये तो तब तक सभी घरों के नल भर-भरा की आवाज से खुले हुए थे। मेरे मन में सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे कि आखिर गांव में ‘‘आदमी’’ क्यों नहीं हैं ?
मुफ्त का रासन-पानी -बात तो 1988-89 से सुन रहा था कि सरकार राशन और चुनाव में ‘‘पानी’’ मुफ्त देती है पर तबसे आज भी वही गुरुमंत्र वोट पाने का अचूक हथियर बना हुआ है ये जानकर हैरानी हुई! घनशाली बाजार में अब चुनाव बाद की चर्चाएं धीमी पड़ती दिखी लोगों को मुख्यमंत्री से ज्यादा लेना देना नहीं दिखा। सभी अब अपने-अपने कामों में लगे हैं। इस
अजीब सन्नाटे को तोड़ते मैंने ही एक परिचित चाय वाले को यूंही छेड़ दिया, यार भैजी वो चाय वाले प्रधानमंत्री ने हमारे लिए मुख्यमंत्री क्यों नहीं भेजा होगा अजीं तक। ‘‘चाय वाला’’ संबोधन भैजी को अपनी बिरादरी की बढ़ाई लगी थी, मूछों पर ताव दिया और बोला देखो हमने तो चायवाले के नाम वोट डाल दिया अब मुखमंत्री-संत्री बनाना उसका काम हमारे बोलने से थोड़े वो बनाएगा।
हां बनाऐगा तो अपनी मर्जी से ही पर भैजी ये तो बताओ आपने क्या सोच कर एमएल ए को वोट दिया। बोला हमने क्या सब ने दिया। पहले लोग विधायक से भारी नाराज थेे पर फिर हमने कहा कि फ्री में राशन और वो नकद पैसा किसने दिया, बताओ अपना कार्ड दिया कि नहीं या हम दिखांए लिस्ट! अपनी विजय पर मुस्कराते रावण के पात्र की हंसी जैसे खिल खिलाते भाई ने हंसते हुए आगे अभियान की बारीकी बताई कि लोगों पर राम मंदिर का असर नहीं था, बस कुछ कर्मकांडी पंडितों को हमने समझा दिया था कि धंधा तभी चलेगा जब तक हमारा धर्म खतरे में रहेगा इसलिए लागों को कैसे भी हो वोट डलवाओं वो बड़े नेता का नाम भुनाओं, एमएलए तो नालायक था भुला पर हमने जिता दिया। भैजी की बातों का उनके बिरोधी दुकानदारों ने भी अपनी अपनी मत-वाणी और ज्ञान के हिसाब से बखान किया था। ऐसा लगा जीतने वाले हारने वालों को रौब झाड़ कर कह रहे हों कि देखा हमसे बढ़कर ंचालबाज नहीं हो तुम, साम, दाम दंड और भेद का आज कैसे इस्तेमाल करना है ये तुम्हारे बस का नहीं है।
बाजार में निठल्ला घूम रहा था तो एक और दिब्यज्ञानी भैजी से टकरा गया। बोले देखा हम सब चुनाव जीतेंगें। मैने पूछा भैजी आप कैसे कह रहे हो। बड़ी गंभीर आवाज में मेरे कानों के पास मुंह लाते हुए बोले सुनो, गांव बंजर पड़े हैं पता है। मैने सिर में हां किया तो आगे बोले सबको पता है, खेत बंजर हैं, मकान बंजर हो रहे हैं पर लोग वोट देने जरुर आते हैं। वोट सबसे ज्यादा उनके हैं जो शहरों में रहते हैं और वो कौन हैं नौकर… सरकारी नौकर सबके बीच हमारी पंहुंच है तो डाक वोट के साथ गांव में रह रहे वो लोग जो इनके फुसलाने में आ सकते हैं या इनके एहसानों तले दबे दबे हैं उनके भी वोट सब हमें ही मिलते हैं। बाकी मुद्दा माद्दा कौन देखता है भुला सबकी रोजी रोटी चल रही है बाकी आगे भी राम ही देखेगा! मैं हैरान था कि ऐसे ही ‘‘रोजी-रोटी’’ की पैरवी कर कैसे वोटों का ढेर लगाया जाता है, ये मुफ्त का राशन-पानी कहां ले जायेगा समाज को यह सोचने का वक्त लोगों के पास नहीं है या वे….