लौह अयस्क से परिपूर्ण एक पहाड़ी और उसकी सीमा रेखा बनाती दो नदियाँ- खैरना और कोशी। एक उत्तरवाहिनी तो दूसरी पश्चिम की ओर आते-आते दक्षिण-पश्चिम को ओर चल देने वाली। उत्तर-पूर्व और दक्षिण में इन नदियों से परिवृत मेरा गाँव मझेड़ा।
पहाड़ों में नदी घाटियों में स्थित कुछ स्थलों को छोड़ कर इतने चौरस खेत बहुत कम मिलते है। घोड़े की पीठ सी इस पहाड़ी पर बहुत पुराना बधाण देवता का मंदिर है। टीले पर एक बूढ़ा पीपल का पेड़ और उसके नीचे एक खड़े पत्थरों की चबूतरे की सी निर्मिति के बीच में एक बड़ा पत्थर। पशुओं का रक्षक बधान देवता। जब भी कोई गाय व्याती है, व्याने के ग्यारहवें दिन उसका दूध इस पत्थर पर चढ़ाया जाता है। उसके बाद ही वयस्क उसको अपने उपयोग में लाते हैं।
इस पहाड़ी समतल पीठ के दोनों और नदी के पास तक चौरस खेत उतरते चले गये हैं। इन खेतों को चौरस बनाने वाली लौह अयस्क से परिपूर्ण वह पहाड़ी है जो लाखों वर्षों से नदियों के सम्मिलित प्रवाह से लोहा लेती हुई, उनके वेग को थामती रही है। फलतः बाढ़ के आने पर भी ये वेगवती जलधाराएँ अन्य स्थलों की तरह इस भू-भाग को काट कर गर्त में नहीं बदल पायी हैं। यह अवश्य हुआ कि प्रवाह के मंद पड़ जाने से खेतों में नदी की बाढ़ के साथ बहकर आये छोटे-बड़े ढोकों और गोल-मटोल चकमक पत्थरों की इतनी भरमार हो गयी कि यह लगता ही नहीं है कि इन पत्थरों की नीचे मिट्टी भी होगी। यह भले ही अजीब लगे लेकिन ग्रीष्म में खेतों की नमी को बनाये रखने में इनकी बड़ी भूमिका है। ताप के संताप को स्वयं झेल कर ये धरा की उर्वरा शक्ति को बचाते हैं। समय पर वर्षा हो जाय तो धान गेहूँ और दलहनों की अपेक्षाकृत अच्छी उपज होती थी।
चन्द काल की समाप्ति तक यह गांव वार्ताशस्त्रोपजीवी मजेड़ी और महर जिमदारों का गाँव था। जिमदार या जमीदार या भूस्वामी।(राजनीतिक विसंगतियों से सिर उठाती ठाकुर और राजपूत नामों में उभरते जातीयता के इस दौर में जिमदार शब्द सबसे सम्मानजनक, सौहार्दपूर्ण और अब तक सर्वस्वीकृत नाम रहा है।)
जमीदार के समानार्थक होने पर भी वे जिमदार थे। भूमि राजा की थी। राजा की कृपा पर्यन्त ही उनका भू स्वामित्व निर्भर था। राजा की नजर जरा टेढ़ी हुई नहीं, उनके भू स्वामी से भूदास या कैनी होने मे देर नहीं लगती थी। ऐसी स्थिति में अपनी प्रतिष्ठा को बचाने का उनके पास एक ही उपाय रह जाता था कि वे अपने खेत की मिट्टी का एक ढेला उठा कर राजा के चरणों में रख दे और भूमि को छोड़ कर कहीं अन्यत्र चल दें। यही परम्परा थी।
भू स्वामी रहने तक वे अपने खेतों में स्वयं हल हल चलाते थे, गुड़ाई-निराई में भाग लेते थे। रातों को जाग कर वन्य पशुओं से फसल की रक्षा करते थे। नदी तट के समीप खेतों में सिंचाई के लिए उन्होंने छोटी छोटी गूलें निकाल रखीं थीं। इन खेतों के पास ही उनके खरक थे जिनमें पाले गये दुधारू पशु, हरा चारा और अनाज और खली के मिश्रण से बना चाटा मिलने से न केवल स्वस्थ और परिपुष्ट होते अपितु गोरस की बहार भी कर देते थे।उनका प्रिय खाद्य मडुवे की रोटी और दूध में उबाली गयी गाढ़े दूध की रौटी होती थी।
पर जब चन्दों के बाद सत्ता में आये गोरखा शासक ने यह अपने दरबार के प्रसिद्ध ज्योतिषी पोखरखाली के श्री गंगाराम त्रिपाठी को यह गांव जागीर में दे दिया, तो उनका यह भूस्वामित्व खो गया। परिणामतः इस गांव के सारे जिमदार उस ब्राह्मण के कैनी या भू दास हो गये। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और नातेदारी खतरे में पड़ गयी। उन्हें खेतों को कमाने और खाने और भू स्वामी को लगान के साथ साथ पर्वो पर विशेष उपहार देने वाले सामान्य भू दासों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अपने सारे संबंधियों से वे बहुत नीचे की श्रेणी मे आ गये हैं। यह वे कैसे सहन कर सकते थे। फलतः संपन्न जिमदारों ने कैनी या भू दास होने से बचने के लिए अपने खेतों की मिटृी का एक ढेला पंडित जी के हाथ में रखा और अपने हल बैलों को लेकर कहीं नई ठाँव खोजने चले गये। गाँव में जिमदारों के एक दो गरीब परिवार सिर झुका कर इसी ग्राम में बने रहे।
(गंगाराम त्रिपाठी, जिन्हें जागीर के साथ.साथ शास्त्री की उपाधि भी मिली थी, के वंशजों ने त्रिपाठी के स्थान पर शास्त्री उपाधि को ही अपना जाति नाम स्वीकार कर लिया। उनके वंशज कृष्णानन्द शास्त्री, के पन्तनगर विश्वविद्यालय के कृषि फार्म के लिए अधिगृहीत मजेड़ा कृषि फार्म के मुआवजे के मुकदमें में 1970 में उच्च न्यायालय, इलाहाबाद द्वारा ग्रामवासियों के पक्ष में निर्णय के बाद जागीर शास्त्री जी के खायकर ग्रामीण भूस्वामी हो गये।)
पंडित जी के कुछ अभावग्रस्त संबंधी जो अपनी आर्थिक दुरवस्था के कारण अपने सम्पन्न बंधु बांधवों की तरह समकक्ष वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं कर सके थे, अपने समूह में सिर झुका कर चलने की अपेक्षा, उनसे दूर इस गाँव में बसने के लिए चले आये। अपनी गरीबी के कारण उन्होने पेट भरने के लिए जिमदारों का पौरोहित्य स्वीकार किया । इस पौरोहित्य के कारण ही वे प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की कोटि से निम्नतर और यजमानी से जीवन यापन करने वाले ब्राह्मण, बिर्तिबामण ( वृत्ति ब्राह्मण ) भी कहे जाने लगे थे। फिर भी वे अपने आप को स्थानीय कृषक ब्राह्मणों से उच्च स्तर का समझते थे।
यजमानी से संतुष्ट आगंतुक परिवारों के पुरुषों को खेती और खेतों से कोई मतलब नहीं था। वे पंडित थे, यजमानों से उन्हें इतना कुछ मिल जाता था कि अपने खेतों की उपज पर अधिक निर्भर नहीं रहना पड़ता था। खेती को जोतने का काम हलवाहे का और शेष सारा दायित्व महिलाओं का था। वे प्रातः मुँह अँधेरे ही उठतीं, एक कि.मी दूर पानी के धारे से ताँबे की गगरियों में पानी लातीं। गोठ में गायों को चारा देतीं, दूध दुहतीं और बड़ी सी टोकरियों में बचे-खुचे चारे से सने गोबर की लेकर खेतों की ओर चल देतीं। उसके बाद ही पंडित जी उठते, “नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं, अवगुण आठ सदा उर रहहीं ” गुनगुनाते हुए पत्नी के द्वारा लाये गये जल से स्नान करते और संध्या में तल्लीन हो जाते। पत्नी खेतों में खाद डाल कर वापस आती। चूल्हा जलाती । भोजन बनाने की तैयार में जुट जाती। पंडित जी भोजन करते और गाँव की चौपाल में गप्प मारने चल देते।
पत्नी कमर में दराती या दरात खोंच कर दूर पहाड़ी ढाल से चारा या लकड़ी लाने चल देती। यदि कोई पर्व होता तो पंडित जी कंधे में धोती रख कर पूजापाठ कराने के लिए यजमानों के घर चल देते। शाम को पत्नी जंगल से घर लौटती, धारे से पानी लाती, गोठ बुहारती, पशुओं को चारा देती, दूध दुहती। दही बिलोती। पंडित जी गाँव की चौपाल से घर लौटते। यदि कोई बात उनके मन की नहीं हो पाती तो फिर पत्नी को फटकरते और नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं अवगुण आठ सदा उर रहहीं..गुनगुनाते हुए हुक्का गुड़गुड़ाने लगते। लगता था उनके खेत और पशु जो भी अन्न और गोरस दे रहे हैं, वह केवल उनकी पत्नी की दशा से द्रवित होकर ही दे रहे हैं।
पुरुष जजमानी करते थे और स्त्रियाँ कृषि के सारे कार्य करती थी। खेतों को जोतने के लिए वे दलितों पर निर्भर थे। इसके लिए भी उन्होंने एक उपाय निकाल लिया था। वे उन्हें थोड़ा बहुत ऋण देकर अपना कृषि दास या हलिया बना लेते थे जो ऋण का व्याज चुकाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी उनके खेतों को जोतता रहता था और ऋण की मूल राशि यथावत बनी रहती थी।
जब तक सामाजिक सौहार्द बना हुआ था, परंपरा को लोग सिर आखों पर रख कर व्यवहार करते थे। जब तक उनके खेतो में हल चलाने वाले भूमिहीन शिल्पकार अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह उन पर ही अवलंबित थे, हल का फाल खेतों में कुछ गहरे जाकर नमी की तलाश करता था। पर जैसे जैसे यह अवलंबन कम हुआ, आस्था घटी, हलवाहा सतही तौर पर खेतों को कुरेद कर अच्छी खासी मजदूरी की माँग करने लगा। कृषि कर्म एक समस्या बन गया। हल चलाते हैं तो जाति गिरती है और नहीं चलाते है तो उपज। उपज तो वृत्ति से भी आ जायेगी लेकिन यदि जाति चली जाएगी तो ? इसलिए हलफोड़ कहे जाने से बचने के लिए उन्हें खेतों की उपज की बलि देना ही श्रेयस्कर लगने लगा।
इसके बावजूद अभी खेती होती है। हलवाहे और महिलाओं के बल पर कृषि कार्य चलता है। पुरुष वर्ग खेतो की ओर झाँकता भी नहीं है। हलवाहा उदासीन होता जा रहा है। बालिकाएँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं। अनपढ़ बहुओं के दिन लदने के साथ ही कृषि कर्म के दिन भी लद रहे हैं। फिर भी खेत बीज हड़पते नहीं हैं सवा या दूना कर के वापस कर ही देते हैं। पुरानी पीढ़ी की महिलाएँ जब तक गोड़ने, निराने, लवाने में लगी हैं छः सात माह के लिए अनाज हो जाता है। जब तक जंगल से गठ्ठर के गठ्ठर घास ला रही हैं, गोठ में धिनाली बरकरार है। पर यह सब कितने दिन चलेगा, कहा नहीं जा सकता।
कुमाउं में गोरखा शासन 1790 से लेकर 1815 तक रहा। इसी बीच अल्मोड़ा के गोरखा शासक ने गंगाराम त्रिपाठी शास्त्री को मझेड़ा तथा अन्य गांव जागीर में दिये होंगे। अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि त्रिपाठी ब्राह्मण उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में 1800 इसवी के लगभग इस गांव में बसे होंगे। यह अनुमान दादी से प्राप्त हमारे वंशानुक्रम में हर पीढी के लिए औसतन 25 वर्ष की अवधि मानने पर भी सही बैठती हैं। यह वंशनुक्रम निम्नवत् है – गौरेश्वर-मनोरथ- बलभद्र – गंगादत्त – हीरावल्लभ – ताराचन्द्र। ताराचन्द्र का जन्म 1940 में हुआ। उस समय उनके पिता की अवस्था 48 वर्ष थी। 1890 से पूर्व हर पीढ़ी के लिए 25 वर्ष का ही मध्यमान स्वीकार करने पर 4 पीढि़यों की कुल कालावधि सौ वर्ष बैठती है। इस प्रकार त्रिपाठी परिवारों का इस गांव में आगमन गौरेश्वर के पिता के जीवन काल में हुआ होगा और तभी मजेड़ी और महर जिमदार यहां से अन्यत्र प्रवसित हुए होंगे। लोकोंक्तियों से यह भी विदित होता है कि जब अल्मोड़ा से त्रिपाठी और बगवाली पोखर के समीप पारकोट से पांडे परिवार इस गांव में आव्रजित हुए, वे लगभग साधनहीन थे जब कि यहां रहने वाले महर और मजेड़ी जिमदार सम्पन्न थे: महर मजेड़ी कूटें धान. त्याड़ी पांडे मुखै. मुख चान। पुरा साक्ष्यों के रूप में मझेड़ा की प्राथमिक पाठशाला से लगभग 50 मीटर दक्षिण में हाल ही तक महर कुड़ी कहे जाने वाले घर के खंडहर विद्यमान थे, पर मजेड़ी जिमदारो की इस लोकोक्ति के अलावा कुमाउं के इतिहास में कोई स्मृति शेष नहीं है।