राजशेखर पंत
पहाड़ों की विरल आबादी वाले भूगोल से फेरी वालों का रिश्ता कभी बहुत गहरा नहीं रहा है. इनकी आवाज़ को अनसुना करना प्रायः इतना आसान नहीं होता. संयोग से अगर इस आवाज़ में अमीन सायानी के अंदाज़ और जानी लीवर की नाटकीय अदायगी का घालमेल हो तो फिर आप चाह कर भी इसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते… बेशक आप अक्तूबर की दोपहर में गले तक बड़ी-भात और पालक का कापा खा कर बैंत की किसी पुरानी कुर्सी में- जिसे दिवाली से पहले रंग-वार्निश करने के लिए बाहर आँगन में निकाला गया हो -पसर कर ऊंघ ही क्यों न रहे हो.
उस दिन वाकई कुछ ऐसा ही हुआ था… और जब मैंने कुर्सी से उठ कर ऊनींदी आँखों से आँगन के सिरे पर लगी रेलिंग के पास से, नीचे की ओर झांकते हुए इस विचित्र से ‘अंदाज-ए-बयाँ’ के मज़मून और उसके सिरे को पकड़ने की कोशिश की, तो मेरी नज़र एक शख्स पर जा ठहरी जो एक मोटरसाइकलनुमा सवारी के हैंडलबार को पकडे हुए हमारे घर की ओर आने वाली चढाई चढ़ रहा था. सवारी, जो शायद टीवीएस एक्सएल 100 थी, उस शख्स के वज़न को चढ़ाई पर खींच नहीं पा रही थी. हैंडलबार पर दो हुक्स की मदद से लटके, लकड़ी के डब्बे में बंद, एक स्पीकर से ही फ़िल्मी धुनों की तर्ज़ पर गाये जा रहे भजनों की पंक्तियों के साथ-साथ अमीन सयानी और जानी लीवर की आवाज़ में किये जा रहे एनाउन्समेंट्स का देसी काकटेल छलक-छलक कर बाहर आ रहा था…
आ गये जी आ गए,
शुक्र शनीचरजी आ गए.
शादी वाली रात में,
भोले की बारात में,
राशन हज़ारों मन खा गए.
कट…
और इसके बाद कहीं बाहर घूमने जा रहे मध्यवर्गीय पति-पत्नी का वार्तालाप मुखर हो उठता है. ट्रेवलबैग की चैन के ख़राब होने का अचानक हुआ खुलासा यात्रा के उत्साह में पानी फेर सकता था… पर अमीन सयानी की अदाकारी के मफ़लर में लिपटी जानी लीवर की आवाज़ दिलासा देती है कि कालोनी में अपनी टीवीएस एक्सएल 100 में घूमने वाले मोहित भय्या हैं तो, चप्पल-जूते ठीक करने से लेकर बैग्स की चेन बदलने और रेड-चीफ और वुडलैंड के जूतों में ओरिजनल पालिश करने के लिए…
कट…
भोलेनाथ मोरी सब सखियाँ मन्ने चिढावें से…
…वही अवाज़ अब अपने बचकाने संस्करण में माँ-बाप की लापरवाही का रोना रो रही है. इतनी बार याद दिलाने के बावजूद मुन्ने के स्कूलबैग का मुंह अब तक खुला है. मोहित अंकल के पास जाने का सजेशन कितनी बार दे चुका है वो… आख़िर रुसवाई तो बेचारे बच्चे को झेलनी पड़ती है न क्लासरूम में.
कट…
… ओह! तो ज़नाब फेरी लगा कर चप्पल-जूते, बस्ते, चेन वगैरा ठीक-ठाक करने वाले हैं. कभी भीमताल जैसे पहाडी कस्बे में किसी दुकान के बरामदे या किसी नियत स्थान पर नियमित रूप से बैठने वाले दल्लू, मटरू या झिम्मान ‘दाई’ इन ज़रूरतों को पूरा किया करते थे. जूतों के पैतावों में संतरे की फाँक से मिलती-जुलती ‘ब्लैकी’ ठुकवानी हो, हाफसोल’ या ‘टल्ली’ लगवानी हो या फिर रबर की हवाई चप्पल के टूटे स्ट्रेप में चमड़े की ‘घुंटी’, -महिने के एक-आध इतवार की सुबह ‘दल्लू-दाई’ के ठीये पर इसी कर्मकांड का मुलाहिजा फरमाते हुए कटा करती थी. गुजरे ज़माने की यादें बन कर रह गयी हैं ये चीज़ें अब. बेशक, अपने नए अवतार में ये साहेबान बाक़ायदा आज भी खुद के बने रहने का एहसास कराते नज़र आ रहे थे.
मुझे अपने दीपावली से पहले रस्मी तौर पर पेंट के लिए तैयार पुराने केन फर्नीचर के पायों पर रबर की गुमटियां चढ़वानी थीं, कुछ घिसे-पिटे मोढ़ों की तलहटी पर लगे टायरों को बदलने की भी दरकार थी. जैसे ही टीवीएस के साथ घिसटते हुए उस शख्स की नज़र मुझ पर पडी मैंने हाथ हिला कर उसे ऊपर, कुछ ऊँचाई पर बने अपने घर पर आने का इशारा किया. मुंदी हुई आँखों, होठों पर एक निश्छल मुस्कान और चेहरे पर परम संतोष का भाव लिए वह ‘शिवमय’ शख्स मेरे सामने खड़ा था. उसने काम की बावत मुझसे जानकारी हासिल की, अपना मेहनताना बताया और दूसरे दिन अपने एक अन्य साथी के साथ आने का वायदा कर, टीवीएस को ढलान पर लुडकाते, बाजा बजाते, शिव-महिमा से वातावरण को गुंजाते हुए चला गया. दूसरे दिन की दोपहर का ‘कुछ तो हट के है इस किरदार में’ वाला एहसास देने वाली इस दिलचस्प शख्सियत के साथ कटना अब तय था.
अरविन्द नाम है इसका, अरविन्द बाबा. राजू इसका साथी है. बदायूं के पास ही कहीं गाँव है इन दोनों का. फिलहाल हल्द्वानी के एक नामी होटल के पिछवाड़े को आबाद किया हुआ है. जूते-चप्पलों की मरम्मत के अलावा बांस की चिक और चटाइयां बनाने में महारत हासिल है इन्हें. रोज़ी-रोटी कमाना पहाड़ों में आसन है, यहाँ के लोग भी सीधे-सादे हैं, इसलिये फेरी लगाने के लिये आ जाते हैं. अपने ‘प्रचार वाहन’ पर बजने वाला आडिओ इन्होने बरेली में बनवाया है, तीन सौ रुपये खर्च कर. प्रचार के ज़माने में जरूरी है ये सब, धंधा चलाने के लिए.
अरविन्द के एक 8-9 साल का बेटा है- मोहित. प्रचार वाहन में बजने वाले साउंडट्रेक के ‘मोहित भय्या’. हुनर की अपनी इकलौती पूँजी को बेटे के नाम के साथ जोड़ कर शायद वह अपने प्यार का इज़हार करना चाहता है. तीन बेटियां भी हैं. अच्छे स्कूलों में दाखिला मिला है उन्हें, पर स्कूल वाले एक कोर्से (कक्षा) करने का 9-10 हज़ार रुपया ले लेते हैं. भगवान् या फिर अपने भाग्य से कोई शिकायत नहीं है उसे. “कुछ भी गलत नहीं है साहब, हम जिस लायक थे भगवान् ने हमें वैसा बना दिया.” भगवान् के अचानक मिलने और उनसे कुछ मांगने की हाइपोथेटिकल संभावना पर हंसी आ जाती है उसे-
“क्या मागेंगे साहब, हम जानते हैं न अपने बारे में, भूखे मरेंगे नहीं, आगे बढ़ेंगे नहीं.”
बीते हुए ‘कल’ को बार-बार ‘आज’ बना कर जीने की मजबूरी उसे शायद इतना तो सिखा ही चुकी है कि ‘नया-सवेरा’ जैसा कुछ नहीं होता. हर सुबह बीती हुई शाम को ढल चुका बासी सूरज ही दोबारा लौट आता है.
अरविन्द का साथी राजू उम्र में उससे बड़ा है, 40-45 साल का एक बूढा सा दीखने वाला शख्स. “मेरी कहानी ख़राब हो चुकी है सर्…” से शुरू हो कर वह बताने लगता है कि कैसे उसकी पत्नी महज़ बीस दिन बीमार रह कर चल बसी. 6 बच्चे हैं. चार लड़कियां और दो लड़के. दो लड़कियों की शादी कर दी है. बेटी की शादी में सरकार की तरफ से मिलने वाली 51हज़ार की रकम के लिए एक दलाल के मार्फ़त कोशिश चल रही है. प्रधान जी ने मकान बनवाने के लिए भी ढाई लाख दिलवाने का वायदा किया है. बस चाय-पानी के लिए कुछ खर्च का जुगाड़ करना है.
अरविन्द सरकार की तारीफ़ कर रहा है. “अपने हक़ की गोरमिंट है इस समय” ऐसा मानना है उसका. प्रचार के ऑडियो के साथ बजने वाले भोले के गीतों की बावत पूछने पर वह उत्साहित हो जता है.
“मैं कुछ और नहीं, पक्का हिन्दू हूँ साहब”… गर्व है उसकी आवाज़ में. “बाबा की कृपा रहनी चाहिये बस, सब खुद ही ठीक-ठाक रहता है.”
शिव या ऐसे ही किसी सर्वशक्तिमान समझे और माने जाने वाले देवता के रूप में अरविन्द और राजू जैसी शख्सियतों को शायद निश्चिंत या फिर एक सीमा तक निर्द्वंद होकर जीने का आधार मिल जाता है. हर पल, और वो भी बगैर जाने-समझे, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले इन अनाम योद्धाओं के लिए यह सब किसी अबूझी सांत्वना से कम नहीं है शायद. और फिर, शिव तो हमारी सामाजिक चेतना में पलायन और निष्क्रियता के एक लम्बे दौर के चलते एक ऐसे देवता बना दिए गए हैं जिन्हें चरस, गांजा- वर्तमान संदर्भों में ग्रास और हैश कहते हैं जिसे –के अलावा किसी भी ‘टुन्न’ कर देने वाले नशे के साथ जोड़े जा सकने की भरपूर सुविधा है. महादेव के इस रूप को ‘खोज’ कर क्या समाज का एक बड़ा हिस्सा जिन्दगी की एक नई परिभाषा नहीं गढ़ रहा है? एक ऐसी परिभाषा जिसमें स्वीकार्य वर्जनाओं, गलत सही की पारंपरिक सोच और सामाजिक समझ जैसी चीज़ों के लिए कोई ज़गह नहीं है.
खतरनाक लगता है मुझे यह सब. पर आज के राजनैतिक परिदृश्य में यह एक सुविधाजनक स्थिति है. अरविन्द को गर्व होता है यह कहने में कि वह ‘हिन्दू’ है ‘कोई और’ नहीं. भोले का भक्त है वह, और भोले सब ठीक कर देते हैं. नशा उसके लिए पलायन नहीं ‘प्रसाद’ है. उसे कोई यह नहीं बताता कि स्कूल नाजायज़ ढंग से उससे हर कोर्स के 9-10 हज़ार रुपये वसूल रहा है. शिक्षा के अधिकार के बारे में उसे कुछ पता नहीं है. उसे किसी ने यह नहीं समझाया कि मकान के लिए मिलने वाले अनुदान या कन्या धन के लिए किसी दलाल या प्रधान को ‘चाय-पानी’ नहीं देना पड़ता. अरविन्द के साथी राजू को यह प्रश्न नहीं कचोटता कि क्यों उसकी पत्नी बीस दिन की बीमारी के बाद बगैर इलाज के मर गयी.
धारा 370, कश्मीर, पकिस्तान, मंदिर-मस्जिद, जेएनयू की लड़ाई जैसी सामयिक हलचलों को जरूरत पड़ने पर देखने-दिखाए जाने का इनका अपना नज़रिया है. शिव जैसी किसी पराशक्ति के सुविधानुसार गढ़ लिए गए संस्करण के अलावा ‘भाग्य’, ‘कर्मों का फल’, ‘भगवान् की मर्ज़ी’ जैसी चीज़ें इनके सोच, इनकी प्रतिक्रियाओं को कंडिशन करती है. असंगठित क्षेत्र में संभावित रूप से उपलब्ध बीमे कि सुविधा, किसी दुर्घटना की स्थिति में मिलने वाला अनुदान, बीमा या सांत्वना राशि या फिर सरकारी अमले के मार्फ़त उपलब्ध कराई जाने वाली किसी सुविधा को मुहैया करा देने का आश्वासन देने वाला कोई दलाल इन्हें भाग्य से मिला हुआ भलामानुस नज़र आता है.
…कितना आसान होता होगा राजनीती के तपे-तपाये खिलाडियों (राजनीतिबाजों?) के लिए- जिनकी जेब से लेकर दिमाग़ तक हमेशा गर्म रहता है –अरविन्द और राजू जैसे रेवड़ को हांकना, उलझाये रखना. इन्हें सोचने-समझने का मौक़ा देना उनके लिए हमाम के सामूहिक नंगेपन को बेपर्दा करने की शुरुवात बन जायेगी शायद.
सचमुच भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा, सबसे सफल लोकतंत्र है. अब ये बात दीगर है कि इसकी सफलता और बड़प्पन का सेहरा राजू और अरविन्द जैसों के चेहरे पर नहीं बंधता.
बहुत अच्छा लगा तुम दोनों से मिल कर. इस देश की महानता के भव्य मक़बरे की पुख्ता नीव बना दिए जाने के लिए बधाई है तुम्हें राजू और अरविन्द…