देवेश जोशी
छोटी दीपावली उत्तराखण्ड में गौ-पूजन पर्व के रूप में मनायी जाती है। गौ-वंश के जीवनों का अलंकरण किया जाता है। विशेष पकवान खिलाये जाते हैं। वैसे तो ये आयोजन पारिवारिक स्तर पर किया जाता है पर खुशी की बात है कुछ संस्थाएँ भी इसमें सहभागिता कर रही हैं।
थैली के दूध की सर्वत्र उपलब्धता और बंदर-सुअरों के आतंक से लोग खेती और पशुपालन से विमुख होते जा रहे हैं। जो कुछ भी, जैसा भी बचा है उसे सम्मान देने और संजोए रखने की जिम्मेदारी सामूहिक है। हम सबकी है। वही असली पर्यावरणविद् हैं जो अभी भी खेती कर रहे हैं, पशुओं को पाल रहे हैं। उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं।
शहरी लोगों के शहरी चोंचले हैं। उनकी दीवाली कभी ब्राइट होती है कभी रेड, कभी ग्रीन। कोरोना ने न जाने कितने घरों में अबाजा कर दिया फिर भी हैप्पी दीवाली के मैसेज में कोई और चेतावनी-सावधानी जोड़ने की किसी को फुर्सत नहीं है। रेडीमेड की लत लग चुकी है। मिठाई हो, उजाला हो या फिर शुभकामना संदेश।
मिठाई और उपहारों से घरों की महक गायब है। हल्दीराम जैसे ब्रांडेड कंपनियां मुँह चिढ़ा रही हैं, दीवाली तो हमारी है, तुम्हारा तो दीवाला है।
दीवाली मनायी क्यों जाती है? बुराई का अंत करके स्वराज में प्रवेश करते राजा के स्वागत में। तो फिर उसी राजा का अनुकरण क्यों न किया जाए। बात इस साल की तो कोविड-कोरोना से बड़ी बुराई और क्या है। विश्व-भर में पसरी और भारत में विकराल। उत्साह में सावधानियों से किनारा करना महंगा पड़ सकता है। अपनी सुरक्षा अपने हाथ।और दूसरे की सुरक्षा भी अपने ही साथ।
लैंसडाउन से अशोक सिंह जी ने कुछ चित्र भेजे हैं, छोटी दीपावली आयोजन के। कोई उपहार समिति का प्रयास है। इतना अच्छा तो चित्र देख कर ही लग रहा है तो फिर इन आयोजनों का हिस्सा बन कर जाने कैसे दिव्य आनंद की प्राप्ति होगी। याद कीजिए या फिर कल्पना कीजिए।
इसी लिखे को शुभकामना संदेश मान लीजिए, दीपावली का। और हाँ गौ-वंश और कृषि-सहायक पशुओं की तरफ से भी।