योगेश भट्ट
उत्तराखंड में नैतिक मूल्यों के तो मानो कोई मायने ही नहीं रहे। ऐसे में निराशा के अंधेरे में उम्मीद का कोई दीप जले भी तो कैसे ? कर्नल अजय कोठियाल को ही लीजिए। अभी उनकी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अर्जी मंजूर भी नहीं हुई और वह पहले ही सियासत की ‘लेफ्ट-राइट’ करने लगे।
केदारनाथ आपदा के बाद कर्नल अजय कोठियाल का नाम उत्तराखंड में सर्वाधिक चर्चित नामों में शुमार हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि केदारनाथ में बेहद विषम परिस्थितियों में बारह महीने मोर्चे पर डट कर उन्होंने पुनर्निर्माण कार्यों को अंजाम दिया। सरकार ने भी इसके लिए उन्हें हर वह संसाधन उपलब्ध कराया, जिसकी उन्हें दरकार रही। लेकिन खास यह रहा कि कर्नल कोठियाल आपदा के बाद ‘केदार के हीरो’ के रूप में सामने आए। इसमें काफी हद तक उनकी जीवटता, नेतृत्व और समर्पण की भूमिका रही तो वहीं कर्नल कोठियाल की अपनी ‘ब्रांडिंग और मैनेजमेंट’ का भी बड़ा योगदान रहा है। केदारनाथ से लेकर दून और दिल्ली तक कर्नल का अपना मैनेजमेंट सिस्टम है, जो उनके कार्यक्रमों से लेकर पूरी तरह उनकी इमेज बिल्डिंग का काम भी करता है। बीते दो साल तो लगातार कर्नल कोठियाल मीडिया के साथ ही सामाजिक मंचों और राजनीतिक गलियारों का चर्चित नाम बने हुए हैं। इस दौरान मिले मान-सम्मान ने उन्हें खासी लोकप्रियता भी दिलाई। इसमें भी कोई शक नहीं कि कर्नल की सक्रियता के बाद आम लोगों को उनमें एक ‘नायक’ नजर आने लगा। खास कर उन लोगों को जो बीते डेढ़ दशक में सिस्टम से खीझ चुके हैं। इस बीच उनके द्वारा स्थापित ‘यूथ फाउंडेशन’ द्वारा युवाओं को फौज के लिये ट्रेंड करने की अभिनव पहल भी खासी कारगर और सराहनीय रही। यूथ फाउंडेशन के तहत होने वाली गतिविधियों के जरिए भी पहाड़ के युवा वर्ग में उनकी गहरी पैठ बनी है और कहीं न कहीं पहाड़ का युवा उनसे बड़ी उम्मीदें लगा बैठा है। लेकिन यह क्या, कर्नल कोठियाल में जिस नायक को तलाशा जा रहा था, वह तो खुद ही उससे कहीं आगे निकल चुके हैं।
दरअसल कर्नल कोठियाल में लोग ऐसा नेतृत्व तलाशने लगे थे जो उत्तराखंड की राजनीति में स्थापित नेतृत्व का एक मजबूत विकल्प दे सके। सच यह है कि कर्नल कोठियाल को लेकर राजनीतिक दलों में उहापोह की स्थिति बनी हुई है। उनका जनाधार सभी के लिये बड़ी चुनौती बना हुआ है। उम्मीद तो यह की जा रही थी राजनीतिक दल उनके जनाधार को देखते हुए उनके आगे नतमस्तक होंगे, जनता उनसे राजनीतिक मोर्चे पर उतरने का अनुरोध करेगी। वह ‘जननायक’ के तौर पर राजनीति में पदार्पण करेंगे, जनभावना के मुताबिक अपना सियासी रास्ता तय करेंगे। लेकिन लगता है बात कर्नल कोठियाल के स्तर पर ही बहुत आगे निकल चुकी है। वह तो मानो खुद ही पूरी प्लानिंग के साथ मैदान में हैं। केदारनाथ पुनर्निर्माण के चलते जो पहचान उनकी देशभर में बनी है, वे सियासत में उसी पहचान को भुनाने की तैयारी में हंै। उनकी हालिया गतिविधियों से काफी हद तक यह साफ हो गया है कि उनकी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति साल 2019 में होने वाले लोक सभा चुनाव के मद्देनजर है। उनका इरादा अब बाबा के दरबार से सीधे लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद की सीढ़ियाँ चढ़ने का है। चर्चा है कि कर्नल साहब सियासत की पूरी फील्डिंग सजाने में जुटे हैं, बैठकों का दौर भी शुरू हो चला है। ऐसी चर्चा है कि उनकी प्राथमिकता अपनी सियासी पारी भाजपा के साथ शुरू करने की है। इसके लिए वह संघ और भाजपा के बड़े नेताओं के शरणागत हैं। हाल ही में एबीवीपी के एक कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शामिल होकर उन्होंने मंच से वामपंथियों पर जिस तरह निशाना साधा, उससे तो काफी कुछ साफ हो भी गया है।
उत्तराखंड के संबंध में वामपंथ को लेकर कर्नल कोठियाल ने जो आशंका जताई उसका जवाब तो वामपंथी नेता इंद्रेश मैखुरी ने उन्हें बखूबी दिया है। लेकिन अब तो यहाँ तक चर्चा हैं कि कर्नल की नजर जनरल की सीट पर है, इसीलिए सोची समझी रणनीति के तहत वे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का अनुसरण कर रहे हैं। बहरहाल सियासी मंसूबे रखना कोई गलत नहीं, किसी राजनीतिक विचारधारा का समर्थन या विरोध भी बड़ा सवाल नहीं है। सवाल है नैतिकता का। नैतिकता तो यह है कि सेवा में रहते हुए आखिरी दिन तक उन्हें किसी राजनीति या राजनीतिक मंच का हिस्सा नहीं होना चाहिए। जिस आधार पर वे सियासी मुकाम हासिल करना चाह रहे हैं, उसका पूरा सम्मान करना चाहिए। कर्नल साहब की तैयारियों और तेजी से तो यह नजर आने लगा है कि राजनीतिक मोर्चे पर उतरने का पूरा एक्शन प्लान और रुट मैप पहले से तैयार है। तो फिर क्या यह मान लिया जाये कि केदारनाथ में उन्होंने जो कुछ किया वह बाबा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि एक एजेंडे के तहत किया ? ऐसे में तो फिर उन आरोपों को भी बल मिलता है जो कर्नल कोठियाल पर केदार आपदा में पुनर्निर्माण के दौरान लगते रहे हैं। अगर वाकई केदार का काम राजनैतिक एजेंडा है तो फिर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि उनमें और केदार पर सियासत करने वाले राजनीतिक दलों और राजनेताओं में क्या फर्क है ? फिर तो उन आरोपों पर भी गौर किया जाना जरूरी है कि पुनर्निर्माण कार्यों में करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे भी हुए। यह सही है कि केदार आपदा के बाद कर्नल कोठियाल का एक बडा प्रशंसक वर्ग तैयार हुआ है, यही कारण है कि तमाम गंभीर आरोपों के बाद भी उनकी मान-प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आई। लेकिन मौजूदा समय में कर्नल कोठियाल भी कठघरे में हैं। सवाल यह है कि क्या वह भी अपने मंसूबों के लिये राजनीतिक दलों के साथ किसी सौदेबाजी में हैं ? उन्हें खुद पर और खुद के जनाधार पर भरोसा नहीं ? यदि ऐसा है तो फिर क्यों जनता कर्नल कोठियाल पर भरोसा करे ? इस बात की क्या गारंटी है कि यदि भाजपा ने उन्हें ‘भाव’ नहीं दिया तो वे कांग्रेस के दरबार में शरण लेने की कोशिश नहीं करेंगे ? सियासी तौर पर देखा जाए तो कर्नल ने अपने पत्ते खोलने और मंसूबे जाहिर करने में जल्दबाजी दिखाई है। प्रधानमंत्री के हाल ही में केदारनाथ दौरे के दौरान ‘निम’ का और उनका जिक्र तक न होना उनके लिए बड़ा संकेत हैं। बहरहाल कर्नल कोठियाल ने अपनी बंद मुट्ठी समय से पहले खोल दी है। एक कहावत है ना ‘बंद मुट्ठी लाख की और खुल गई तो खाक की।’
(फेसबुक से साभार)