15 अक्टूबर को मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त ‘द हिन्दू’ के ग्रामीण मामलों के सम्पादक पी. साईंनाथ द्वारा नैनीताल क्लब में ‘पहाड़’ का 15वाँ ‘राहुल सांकृत्यायन व्याख्यान’ दिया गया। भारत में उत्तरोत्तर बढ़ रही गैर बराबरी पर केन्द्रित व्याख्यान में पी. साईंनाथ ने बताया कि पिछले 15 वर्षों में गरीब और अमीर के बीच की खाई आश्चर्यजनक रूप से चैड़ी हो गई है। हमारे देश में गैरबराबरी कोई नई बात नहीं है, लेकिन अब इसे बडी चालाकी से हमारी नीतियों का हिस्सा बना दिया गया है। 20 वर्ष पहले हम समानता के लिए नियोजन करते थे। अब विषमताओं के लिए करते हैं।
मामला मात्र संपत्ति और आय का ही नहीं है। पानी का ही उदाहरण ले लें। गरीब के हिस्से का सिंचाई का पानी अमीर को, कृषि का पानी उद्योग को, गाँव का पानी शहर को निर्बाध रूप से हस्तांतरित हो रहा है। 55 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र वाले महाराष्ट्र की तुलना में शहरी महाराष्ट्र 400 प्रतिशत अधिक पानी का उपभोग करता है। यहाँ सिर्फ तीन जिले, मुम्बई, नासिक और पुणे राज्य का 53 प्रतिशत पानी पी जाते हैं। पुणे-बम्बई में ऐसी 34 मंजिली इमारतें बन रही हैं, जिनके हर माले पर एक ‘स्विमिंग पूल’ है। चेन्नई का हाल थोड़ा अच्छा है तो सिर्फ इतना कि वहाँ हर तीसरी मंजिल पर स्विमिंग पूल वाली हाईराइज इमारतें बन रही हैं। ऐसे भवनों में वे किसान मजदूरी कर रहे हैं, जो उनके गाँव में पानी न होने के कारण घर-बार छोड़ कर शहरों को आ गये हैं। वहाँ सिंचाई तो दूर की बात, पीने का पानी प्राप्त करना दूभर हो गया है।
आजादी के 70 वर्ष बाद भी आपको किसी आदिवासी के घर पर पानी का नल नहीं मिलेगा। सार्वजनिक नलों के पास खाली बर्तनों की कतारें इतनी बड़ी हो चली हैं कि पानी भरने के लिये पूरे दिन की मजदूरी चली जाती है। ऊपर से अगर घड़ा दलित का हो तो वह उसे किसी सवर्ण के साथ नहीं रख सकता। ग्रामीण महाराष्ट्र में चीनी माफिया द्वारा जितना पानी एक एकड़ में गन्ने की सिंचाई को लूट लिया जाता है, उससे ज्वार जैसे मोटे अनाजों की 12-15 एकड़ खेती को सींचा जा सकता है। यहाँ कुल किसानों में से 2 प्रतिशत प्रभावशाली किसान सिंचाई के 68 प्रतिशत पानी का उपयोग अपनी फसलों के लिए करते हंै।
‘फन एण्ड फूड’ और ‘एस्सेल वल्र्ड’ जैसे विशालकाय मनोरंजन पार्क बिजली-पानी के अनैतिक दोहन के दूसरे उदाहरण हैं। यहाँ सस्ती दरों पर उपलब्ध कराई बिजली की मदद से पानी की बर्फ जमा कर आइस स्केटिंग जैसे खेल को परोसा जाता है। धार्मिक पर्यटन विकसित करने के नाम पर यमकेश्वर में इतना कंक्रीट लाद दिया गया है कि नर्मदा नदी अपने उद्गम पर ही विलुप्त हो गई है। हालात ऐसे हंै कि शनि स्नान के लिए प्रसिद्ध रामकुण्ड में अब पानी सार्वजनिक नलों से टैंकरों में इकट्ठा करके डाला जाता है। नर्मदा के उद्गम स्थल में आम जनता को तीन दिन में एक बार पानी मिलता है, जबकि टैंकर के पवित्र जल में शनि स्नान हर रोज होता है।
अब गेटबन्द समुदायों के रूप में विकसित किए जा रहे आवासीय संकुल सामाजिक आर्थिक गैरबराबरी के टापुओं की तरह हर बडे़ शहर में उग रहे हैं। दावा किया जाता है कि गेटेड कम्यूनिटी में पले बच्चों का सर्वांगीण विकास होगा। बच्चांे के लिए यहाँ इतने क्रिया-कलाप उपलब्ध होंगे कि माँ-बाप को उनकी चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी। इस तरह हम कैसे समाज का निर्माण करने जा रहे हैं, यह आने वाला समय ही बतायेगा।
इस नये दौर में हमने न केवल गैर-बराबरी बढ़ाने के नये तरीके इजाद कर डाले हैं बल्कि जात-पाँत के दकियानूसी बंधनों को और कड़ा कर लिया है। हरियाणा की खाप आज पहले से अधिक मजबूत है। इन वजहों से नयी सामाजिक विषमतायें बढ़ रही हंै और नये क्षेत्रों में अपने पैर पसारती दिखती हैं। कृषि क्षेत्र में 1991 और 2011 के बीच 15 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी। प्रश्न उठता है कि ये कहाँ गये ? इसका उत्तर है कि इनमें से अधिकांश खेतीहर मजदूर हो गये। हमारी जनगणना के आँकड़ों से इनका संकेत मिलता है।
काॅरपोरेटों की ताकत सरकारों से भी ज्यादा है। 73वें 74वें संविधान संशोधनों से हमने स्थानीय निकायों के सशक्तीकरण का प्रयास जरूर किया मगर असफल रहे। जब पंचायती राज का सामना कार्पोरेशन से होता है तो जीत काॅरपोरेशन की होती है। जमीनें छिन जाती हंै, मगर विस्थापितों के लिए नौकरी पैदा नहीं हो पाती।
अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘क्रेडिट सुइस’ की रिर्पोट का हवाला देते हुए साईनाथ ने बताया कि भारत के अमीरों में शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत लोग देश की सम्पूर्ण घरेलू सम्पत्ति के 58.4 प्रतिशत हिस्से के मालिक हैं, जबकि अमेरिका के इन्हीं 1 प्रतिशत की मिल्कियत 42 प्रतिशत की है। यानी कि असमानता में हम अमेरिका को पीछे छोड़ देते है। विकास का ऐसा उदाहरण शायद ही किसी दूसरे मुल्क में देखने को मिले। एक सुनियोजित षड़यत्र के तहत निचली पायदानों पर बैठे लोगों की सम्पदा हड़पी जा रही है, जिसके फलस्वरूप एक छोर पर धन्ना सेठ बैठे नजर आते है और दूसरे सिरे पर कौड़ी-कौड़ी को मोहताज करोड़ों की जनसंख्या।
भारत सरकार के 2013-14 का आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण भारत के 75 प्रतिशत हिस्से में परिवार की कमाई 500 रु. से कम आती है और 90 प्रतिशत परिवार 10,000 रु. महीने में गुजारा करते हंै। केवल वे परिवार जिनके सदस्य सरकारी रेलवे या अध्यापन जैसी नौकरियों में हैं, 10,000 रू. से अधिक घर ला पाते है। वहीं दूसरी तरफ देश में 101 खरबपति हैं। जिनकी सम्पत्ति डालरों में आंकी जाती है। अब जरा किसानों की दशा पर नजर डालिए। सामान्यतः एक किसान परिवार में 5 सदस्य मिलेंगे। बड़ा भाई अपनी खेती में और 3 भाई बाहर मजदूरी करके औसत मासिक 6,426 रु. कमा पाते हंै। कुछ राज्यों में तो कुल आय 3,000 रु. मासिक है। ये सरकारी सर्वेक्षणों के आँकड़े हैं जिनके आधार पर सरकार की क्रेडिट पाॅलिसी बनती है। अब इसे गैर बराबरी पैदा करने वाली सोची-समझी नीति नहीं तो और क्या कहा जाये ? क्रेडिट किसान को नहीं बल्कि काॅरपोरेट एग्री बिजनेस को मिलता है। मुकेश अम्बानी को मिलता है, अनिल को मिलता है या बाबा रामदेव को। छोटे लोन बन्द होते चले जा रहे हंै और 10 से 25 करोड़ के लोन चलन में हैं। कृषि कार्य के लिए विनिहित ऋणों को बैंक बड़ी आसानी से कृषि व्यापार की मद में तब्दील कर देते हैं और ये लोन मोनसैंटो जैसी कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के खाते में चला जाता है। कृषि क्षेत्र का संकट मानवजनित संकट है। इसमें हम गले तक डूब चके है। एन.सी.आर.बी. के मुताबिक 1995 से 2015 के बीच 3,10,000 किसानों ने आत्महत्या की और सरकार ने किया तो क्या किया, गृह मंत्रालय के अंतर्गत चलने वाली इस एन.सी.आर.बी. को ही बन्द कर दिया।
इस गैरबराबरी को ‘प्रतिरोध के अपराधीकरण’ की प्रवृत्ति परवान चढ़ा रही है। जब-जब लोग सड़कों पर उतर कर आवाज उठाते हैं, पुलिस नायाब तरीके से उन्हें कानून के जाल में फँसाती है। उदाहरण के लिए आन्दोलन करते वक्त आन्दोलनकारियों के लीडर के साथ अज्ञात 800 लोगों के विरुद्ध केस दर्ज कर लिया जाता है। इससे पुलिस 800 लोगों को गिरफ्तार करने का हक पा लेती है और जब-तब ग्रामीणों को भयाक्रान्त करती रहती है। एक एक्टिविस्ट का जीवन कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते कट सकता है।
यह गम्भीर सामाजिक अपकर्ष का दौर है। भीड़ आपको पीट-पीट कर आपकी जान ले सकती है। गोमांस रखने या गो तस्करी के शक में किसान का परिवार उजाड़ दिया जाता है। उच्च शिक्षा के संस्थानों को बर्बाद किया जा रहा है। पिछले 3 सालों में हम 30 साल पीछे हो गये हैं। एक बड़ा आन्दोलन ही इस स्थिति से उबार सकता है। कुछ जगहांे पर या छोटे मगर सशक्त आन्दोलन लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं। उन्हें जोड़ने की जरूरत है। हमें अपने प्रतिरोध के स्वरों को खोजने की जरूरत है। आज हमें अपने उस गुस्से और जुझारूपन को वापस लाना होगा, जिसके साथ हमने 60, 70 और 80 के दशकों में दलितों, शोषितों की लड़ाइयाँ लड़ी। यह खतरा तो उठाना ही होगा कि हमें आंतकी, राष्ट्रद्रोही और विकास की राह के रोडे़ कहा जाये। हमें बाजार, धर्म और राजनीति के इस खतरनाक गठजोड़ से लड़ना ही होगा।