हिमांशु जोशी
उत्तराखंड का गांव लोहारी पिछले कुछ दिनों से बड़ी चर्चा में रहा है। टिहरी की तरह ही लोहारी को भी विकास के नाम पर डुबा दिया गया। लोहारी की डूब का विरोध टिहरी की तरह नही हुआ।
लखवाड़ व्यासी जल विद्युत परियोजना की आधारशिला 1960 के आसपास रखी गई थी, जिसके बाद यह पूरा इलाका बांध परियोजना के डूब क्षेत्र में आ गया था। सरकार ने उस समय गांव वालों को विस्थापित कर मुआवजा भी दिया था। इस परियोजना को सबसे पहले जेपी कंपनी ने बनाया लेकिन साल 1990 में पैसों की कमी के कारण यह डैम फिर से अधर में लटक गया था। साल 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार आने के बाद यह डैम उत्तराखंड जल विद्युत निगम को दे दिया गया और लखवाड़ परियोजना से व्यासी को अलग कर दिया गया।
अब व्यासी परियोजना का काम लगभग पूरा हो चुका है और जल्द ही बिजली उत्पादन भी शुरू किया जाएगा।
यमुना में जल स्तर बढ़ने के बाद यह परियोजना 120 मेगावाट तक बिजली उत्पादित करने लगेगी, इसी वजह से अप्रैल 2022 में प्रशासन ने लोहारी गांव के लोगों को गांव खाली करने का नोटिस दिया।
बांध संघर्ष समिति लोहारी के अध्यक्ष नरेश चौहान बताते हैं कि इस परियोजना में हमें साल 1972 में पहली बार मुआवजा मिला था। तब सरकार ने हमारे गांव वालों से यह एग्रीमेंट किया था कि जमीन के बदले जमीन दी जाएगी पर बाद में सरकार पैसा देने लगी। गांव वालों ने पैसा नही लिया तो सरकार ने उसे ट्रेज़री में रखवा दिया, बाद में कुछ ने वह पैसा लिया और कुछ का पैसा अब भी ट्रेज़री में ही है। सरकार को जब जरूरत पड़ी तब हमारी जमीन का अधिग्रहण किया, हमारी जमीन का अंतिम बार अधिग्रहण 1989 में हुआ लेकिन परियोजना शुरू होने के लगभग पचास साल बाद भी सरकार हमारा विस्थापन क्यों नही करा सकी।
सरकार ने भूमि पर कब्ज़ा लेने से पहले नोटिस जारी किया और किसी के आपत्ति होने पर 30 अप्रैल तक का समय भी दिया पर सवाल ये है कि ‘कलेक्टर/प्रशासक/समुचित सरकार, देहरादून’ से भी बड़ा वह शख्स कौन था, जिसके आदेश से 10-11 अप्रैल में ही गांव को पूरी तरह डूबा दिया गया।
संभावना यह भी नज़र आती है कि इन तीस दिनों की समय सीमा के शुरुआती दिनों में ही 48 घण्टे के अंदर भवन खाली करने का आदेश जारी करने वाले अधिकारी शायद सरकार द्वारा जारी नोटिस ठीक से नही पढ़ पाएं हों और वह यह भी नही जानते हों कि वर्षों से एक घर में रहने वाला कोई परिवार अपना घर मात्र 48 घण्टे में कैसे छोड़ देगा। यह आदेश वर्षों पहले के ब्रिटिश शासन में तो ठीक लग सकता था पर एक आज़ाद मुल्क के परिवार के साथ ऐसी नाइंसाफी ठीक नही लगती।
नरेश चौहान कहते हैं हमें ये तो पता था कि परियोजना पूरी होगी तो हमें यहां से जाना होगा पर सरकार में हमारी कोई व्यवस्था किए बिना हमें पैदल कर दिया।
इन्होंने गांव से तीन किलोमीटर दूर हमारे लिए 16-17 कमरों की व्यवस्था तो की है पर वहां कोई सामान उपलब्ध नही है। पानी भरने के तीन दिन तक हम क्रेशर के ढेर में खुले आसमान के नीचे रहने पर मजबूर थे ,जब वह भी डूब गया तो हमने पास के ही एक स्कूल का सहारा लिया है। हम कुल मिलाकर 20-22 परिवार हैं जो इस स्कूल के चार कमरों बरामदों में रुके हैं, स्कूल के बगल वाले मकान मालिक ने भी कुछ सहारा दिया है।
पर्यावरणविद रवि चोपड़ा इस परियोजना को पर्यावरण के लिए बेहद ही खतरनाक बताते हैं, उनका कहना है कि लोहारी गांव को डुबाने वाली लखवाड़-व्यासी परियोजना के इलाके में डूब क्षेत्र का पचास प्रतिशत हिस्सा जंगल का इलाका है। अपर यमुना कैचमेंट में चल रहे ऐसे प्रोजेक्टों से भविष्य में क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका मूल्यांकन कभी नही हुआ। पहले से ही खतरे में चल रहे यमुना के ग्लेशियर के लिए यह बड़ी समस्या है। लखवाड़ के अगल-बगल जो पहाड़ हैं उनकी ढाल स्थिर नही है और वहां भूस्खलन होते रहते हैं। वहां रहने वाले लोग चिंतित हैं कि क्या वो झील के ऊपर जाकर भी सुरक्षित रहेंगे। टिहरी में हम यह देख रहे हैं कि वहां झील के चारों तरफ भयानक भूस्खलन हो रहा है।